अनसमझी कटी डोर

जिंदगी कई कहानियाँ यूँही अधूरी छोङ जाती है,
तब हकीकत क्यूँ कल्पनाओं के आगे दम तोङ जाती है।।
 नही जुङ पाती तब वास्तविकता की टूटी कङियाँ,
सच्चाई और कल्पना मिलकर क्यूँ आधार नही पाती हैं।

इस अधुरी कहानी का रंग, कभी दिखता है सफेद, तो कभी लगता है काला,
जो समझ में आता है गलत, वो देता है कभी नासमझी का हवाला।
विचारों के भूकंप से पनपी है जो, सच और भ्रम के बीच की खाई,
क्यूँ उसको दिल और दिमाग की, प्रतिद्वंद्वता जोङ नही पाती है।
और तब क्यूँ हकीकत कल्पनाओं के आगे दम तोङ जाती है।।

मिन्नतें करते हैं तब हम उनसे, दिखाओ हमें सच का आईना,
पर सोचते हैं वो हम नहीं कर सकेंगे उसकी बदसूरती का सामना।
इसी बीच, धीरे से, इस अधुरेपन पर समय की धूल पट जाती है,
फिर अचानक यादें इस अधुरी कहानी के खाली पन्ने पलट जाती है।
तब हकीकत फिर से कल्पनाओं के आगे दम तोङ जाती है।।

इस अँधियारे कोने पर क्यूँ नही डालता सूरज अपनी किरणें,
चांद भी कभी नहीं निकलता यहां, इस डगर को रोशन करने।
नही चाहिए सूरज की रोशनी, तारों की चमक ही दिखा दो,
कहीं से तो कोई आवाज हो और कोई तो ये बता दो-
मेरी ये कटी डोर उसकी हकदार पतंग से क्यूँ जुङ नही पाती है,
क्यूँ
हर बार हकीकत कल्पनाओं के आगे दम तोङ जाती है।।

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