खुला दरवाजा





बहुत शोकाकुल माहौल था घर का..! बुढ़े माँ-बाप अपने जवान बेटे और बहु की लाश के पास बैठे बिलख रहे थे। वो तो अपना  सब कुछ ही हार चले थे । दुख इतना बड़ा था कि कोई सुरते-हाल ही नजर नहीं आ रहा था, जिंदा रहने का..!
               दुख में कोई अगर-मगर नहीं होता, पर बुढ़े माँ-बाप के दिल से एक आह बार-बार निकल रही थी -काश हमारा बेटा ऐसा ना करता..!!  मरना ही था तो खुद को ही मार लेता, बहु और मिनी के साथ तो ऐसा ना करता या हम दोनों को भी इन सबके साथ ही मार देता। हम दोनों अब जिंदा रहकर भला करेंगे भी क्या..?? हाय.! ये क्या हो गया ..??  हमसे ऐसा क्या पाप हो गया था जो मौत से भी बदतर सजा मिली..?? भगवान ने हमारे साथ ऐसा क्यूँ किया..??
               चार दिन हो आए थे इस बात को पर मिनी को अब तक होश नहीं आया था। लोग शोक मनाने घऱ आने लगे थे, पर दादा-दादी तो दिन-रात अपनी मिनी के पास अस्पताल में ही रहते थे। डॅाक्टर ने कहा है उसकी हालत अभी भी गंभीर बनी हुई है और अभी कुछ कहा नहीं जा सकता।
              दस दिन बाद आखिरकार मिनी को अस्पताल से छुट्टी मिल ही गई।
              अब दादा-दादी घऱ पर थे अपनी मिनी के साथ। शोक मनाने वाले अब उनके घऱ आने की खबर सुनकर फिर से आने लगे थे।
             सब लोग उन बुढे माँ-बाप को सांत्वना देते, हिम्मत रखने की सलाह देते और अफसोस जताते और कहते-
            "बहुत बुरा हुआ जी..! भगवान ऐसा किसी दुश्मन के साथ भी ना करे..! इकलौता बेटा था, सब बातों की मौज थी। ईश्वर जाने क्या मन में आई, पूरे परिवार को ही खत्म कर डाला..!  होनी को कौन टाल सकता है भला..!  वो तो शुक्र है ऊपरवाले का, पोती की जान तो बच गई। पर ये दुख भी कुछ कम नही है, पोती की जगह अगर पोता होता तो कुछ सालों की दिक्कत होती बस फिर उसके जवान होने पर फिर से रौनकें लग जाती घऱ में। पोती तो लङकी है, पराया धन है, कल को अपने घर चली जाएगी। पोता होता तो बुढापे का सहारा बनता, वंश आगे बढाता। पर क्या किया जा सकता है..? भगवान की मर्जी के आगे कहाँ  किसी की चलती है, जैसे वो रखना चाहे वैसे ही रहना पङता है। अब जो हो गया उसको तो बदला नही जा सकता, सब्र करो समय सब ठीक कर देगा।"

                   इन सबके बीच एक व्यक्ति था जो शांति से सबकुछ सुन रहा था, बुढे माँ-बाप के पास आया और कहने लगा- "जो भी हुआ बहुत बुरा हुआ। जिस दुख से आप गुजर रहें हैं, मैं वो समझ सकता हूँ, क्योंकि मैं भी एक पिता हूँ। बेशक बहुत बुरा वक्त है ये आपकी जिंदगी का, शायद अब तक का सबसे बुरा। पर एक बात तो आप भी जानते हैं, वक्त की तो फितरत ही होती है गुजरने की, सो ये बुरा वक्त भी गुजर जाएगा।"
                  एक गहरी सांस लेकर कहा- "समय सबसे बङा मरहम है, हर जख्म भर देता है। मैं जानता हूँ इन सब बातों से आपका दुख ना कम होगा और ना बँटेगा, पर हम जैसे इंसान सिवाय चंद शब्दों के कहने के और कर भी क्या सकते हैं। पर एक बात कहना चाहता हूँ, जानता हूँ ये वक्त मुनासिब नहीं है ऐसी बातें करने का। पर फिर भी जरुरी है।"
                 बुढे और दुखी पिता के हाथ पर हाथ रखते हुए उस व्यक्ति ने कहा- "आपके बेटे और बहु को वापिस नहीं लाया जा सकता, पर अभी भी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। उनका तो जीवन का सफर इतना ही लिखा था, पर कम से कम इस बात से दुखी मत रहना की मिनी पोती है।................. बेटियाँ हर फर्ज बखुबी निभाती हैं, ..बेटों की ही तरह,..बशर्ते उन्हें निभाने दिया जाए। हमने बेटी,..बहन,.. पत्नी ..और माँ के दायरे के नाम पर इतनी बंदिशों का जाल बुन दिया है उनके चारों तरफ कि एक दिन उस जाल से उलझते-उलझते उसी जाल में उनका दम घुट जाता है। हम हमेशा उन्हे उन जिम्मेदारियों को निभाने के नाकाबिल मानते हैं, जो उन्हे कभी निभाने ही नहीं देते।"
                 एक लंबी सांस लेते हुए कहना जारी रखा- "जहाँ तक वंश आगे चलाने की बात है, कुदरत ने तो आदमी और औरत दोनों की सहभागीता निर्धारित की हुई है। पर अगर नाम किसी एक का ही चलता है, ये नियम तो हमारा ही बनाया हुआ है ना। सदियों से चलती इस मान्यता ने इतनी गहरी पैठ बना ली है कि अब यही वास्तविकता बन गई है..! पर सच क्या है उसकी वास्तविकता हम कभी समझना ही नही चाहते।"

                 बुढे पिता के हाथों को अपने हाथ में लेकर बहुत ही सहज शब्दों में कहा- "जानता हूँ ये मौका नही है  ऐसी बातों का, पर ऐसे समय पर ही तो हम इंसान जिंदगी को सच में समझने औऱ उसे जानने की कोशिश करते हैं।..... उम्मीद करता हूँ बुरी तो नही लगी होंगी मेरी बातें..!! ईश्वर आपको इस सदमें से उबरने की हिम्मत दें..! अपना और मिनी बिटिया का ख्याल रखना आप दोनों। अच्छा ! अब ईजाजत दीजिए।"
                "कौन था ये आदमी..?  कैसी अजीब बातें कर रहा था..?  ना वक्त देखा, ना मौका और लगे भाषण देने। अरे कम से कम ये तो देख लेता किनसे बात कर रहा है..! इनका यहाँ पूरा परिवार उजङ गया और उनको बेटियों का बखान सूझ रहा है। बताओ तो था कौन ये आदमी..??"- एक रिश्तेदार ने शिकायती लहजे में पूछा।
                "ये हमारे पङोसी हैं मामीजी, बस दो घर छोङकर घर है इनका। अब तो वैसे बाहर रहते हैं, आते रहते हैं गाँव में ।.... जब भी आते हैं मिलकर जरुर जाते हैं। बहुत ही भले आदमी हैं।..... तीन बेटियाँ हैं इनकी। तीनों ही बङे ओहदों पर नौकरी करती हैं। और दामाद तो सुनने में आया है, बेटों से भी बढकर सेवा करते हैं इनकी। जो भी कहा है इन्होने, इनके जीवन पर नजर डाली जाए तो सही ही लगता है।"- बुढे माँ-बाप की बङी बेटी ने बताया।
                "वो सब तो ठीक है, पर ये समय तो ठीक नही है ना इन सब बातों के लिए।"- मामीजी ने इस बार जरा नरम लहजे में कहा।
                     इसी बीच बुढे माँ-बाप एक-दूसरे की तरफ देखकर, एक-दूसरे के दिल की आवाज का अंदाजा लगाने की कोशिश करते हैं कि क्या भगवान ने सच में सौ दरवाजे तो बंद कर दिए, पर एक दरवाजा खोल भी दिया है।






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