वही कहानी

बस वही पुरानी सुनसान राहें थी,
था बस वही खालीपन और कड़कती धूप।।

एक उसका ही साया बचा था,
भस्म हो चुका था जीवन का हर रुप।
कदम थके थे और पैरों में पड़े थे छाले,
फिर भी नजर नहीं आता था हमसाया स्वरूप।
काली-सफेद हो चुकी झुलसकर सब दिशाएँ,
बस एक बरसात की चाह में दुआएँ भी की थी खूब।
फिर भी बस वही पुरानी सुनसान राहें थी,
था बस वही खालीपन और कड़कती धूप।।

सोचा हर बार चलो करते हैं फिर नया आगाज,
नए सुरों से सजाते हैं फिर से एक नया साज।
खुद को हर बार दोहराने से, पर होनी ना आई बाज,
हर बार वही गलियारे क्यूँ मिलते हैं, ना समझे राज।।
बहुत सजाई उम्मीदें फिर भी हालात रहे वैसे ही कुरूप,
और बस वही पुरानी सुनसान राहें थी,
था बस वही खालीपन और कड़कती धूप।।

बेजान हो चुके जज्बातों में डालने में लगे रहे जान,
पर फरिश्ता बनने की चाह में बनते गए शैतान।
एकरंगी जीवन में औरों के इंद्रधनुष देखकर हुए हैरान,
हर बार की नाकामियों में ढूँढते रह गए जीत के निशान।।
रेत के महलों सा ढहता देखा हर सपना खूब,
बस वही पुरानी सुनसान राहें थी,
था बस वही खालीपन और कड़कती धूप।।

अंत

क्या ये अंत बस यूँही होगा?
ना आँखें नम होंगी,
ना ही रोया जाएगा,
ना गले मिला जाएगा,
ना मुड़ कर देखा जाएगा,
 ना दुआएँ की जाएँगी ,
ना हाथों का स्पर्श दूर होगा,
ना रोकने को हाथ उठेंगे,
ना ही पुकारा जाएगा,
ना बिछड़ने का दर्द दिखेगा,
पर क्या सच में ऐसा मोड़ भी आएगा?
और क्या ये अंत बस यूँही होगा?

क्या यही सच है,
दिल तो रो रहा है,
आँखें नम नहीं तो क्या !
चेहरा रुआँसा नहीं तो क्या !
दिल तो दिल को जकड़े बैठा है,
बदन गले ना मिले तो क्या !
जान भी संग उसके निकले जा रही है,
रोकने को हाथ ना उठे तो क्या !
अंदर-अंदर सब कुछ छिन रहा है,
हाथों के स्पर्श ना छूटे तो क्या !
दहाडें मारकर रो रहा है मन,
गर रोकने को पुकारा नहीं तो क्या !
छलनी हुआ जाता है सीने में कुछ,
जो बिगड़ने का दर्द नहीं दिखा तो क्या !
सच वो नहीं जो दिखा नहीं,
बेदम हुआ जाता है मन तो,
तन पैरों पर खड़ा है तो क्या !
तो फिर क्या ये अंत बस यूँही होगा?

दौङ

वो दौङा बेतहाशा था,
जाने किस बात पर रुआँसा था।
आजमाए थे हर मालूम जोर उसने,
पर हार का ही होता खुलासा था।।

सुना था कहते हुए ये उसने,
जीवन उत्सवों का नाम है।
नाकामयाबी दिखाती है कामयाबी की डगर,
उसकी कोशिशों में फिर क्यूँ नजर आती थकान है।।
अश्क बहाए हर दफा उसने इतने।
फिर भी नजर आता सब धुँधला सा था,
वो दौङा बेतहाशा था,
जाने किस बात पर रुआँसा था।

सुनी थी उसने कितनी ही कहानियाँ,
गिर-गिर कर दौङने के कारनामों की।
कुदरत भी देती साथ, जो करता है अनथक प्रयास,
सफलता चूमती कदम, जरुरत नहीं बहानों की।।
वो क्यूँ लङखङा उठता, जब गिर कर उठाता कदम,
क्यूँ फिर उसकी मंजिलों पर छाया कुहाँसा था।
वो दौङा बेतहाशा था,
जाने किस बात पर रुआँसा था।

जब हर बार सपना हुआ चूर-चूर,
तो सोचा चल कुछ देर अब ठहर जाते हैं।
हर प्रयत्न हो गया है अनमना सा,
क्यूँ ना धरा के संग ही बह जाते हैं।।
पर मौत आने से पहले ही क्या मरना,
कोशिशें करते रहने का नाम ही तो आशा था।
वो फिर दौङा बेतहाशा था,
चाहे कितना भी रुआँसा था।।

बरसात का त्यौहार

ये बादलों के नीले पहाङ,
जो आसमान के हैं उस पार।
पुकारते हैं हमें कि देखो,
प्रकृति ने किया फिर से हार-श्रृंगार।।

छाई पेङों पर नई हरियाली,
जब आया बरसात का त्यौहार।
झमाझम बरसते हैं मेघ ऐसे,
 कि छा गई है हर ओर बहार।।

हर जीव को मिला नवजीवन,
गाए धरा का कण-कण राग मल्हार।
धुल गई अशुद्धियाँ सारी,
हुई धरती माँ नवयौवन से सरोबार।।

कभी मक्खन समेटे अपने में ये गगन,
तो कभी लाता काली घटाओं के वार।
निचुङती गरमी से दिलाने निजात,
देखो आया सावन का कहार।।

भांत-भांत की सजीवटता झलकती,
नजर आता जीवन का असीमित सार।
मुरझाए फूल भी खिल उठे तब,
जब आसमान से हुई बूँदों की बौछार।।

मीठे-तीखे पकवान भाते,
हवाओं में बहता एक नशीला खुमार।
नीरस, बेरंग से होते क्षणों में ,
अचानक सज जाते रंग बेशुमार।।

टप-टप कर टपकते तन के पानी का,
बारिशें उतारने आई तन का चिपचिपा भार।
खिल उठा हर रुप धरा का,
देखो जब आया बरसात का त्यौहार।।















































आरती और दादी भाग 3- मुलाकात

             
  दो दिन बाद शीना अपनी दादी को लेकर आरती के घर आई। तीन गली के बाद अगली गली में मुड़ते ही, दो घर के बाद, तीसरे घर के सामने पहुँच कर, पीछे मुड़कर पूछने लगी-"दादी यही घर है ना... ?"
              अभी उसकी बात पूरी हुई भी नहीं थी कि उसी समय घर से बाहर भाग कर आती हुई आरती उससे टकरा गई, तो गुस्से से बोली-"देखकर नहीं चल सकती अं.......... !"                पर शीना की दादी को देखते ही अपनी ही बात बीच में ही काटते हुए और अपनी जीभ दांतों तले दबाकर बोली "राम-राम दादी। "
             जीभ निकालकर और आँखें टेढ़ी करके शीना को "ऐंं......" चिढाते हुए बाहर भाग गई। शीना की दादी हँस पड़ी।
            "कौन है आरती... ?? अरे बहन तू...! बड़ा इंतज़ार कराया तुमने तो....! पोती बताना भूल गई थी क्या...? नमस्ते शीना पोती  "-आरती की दादी ने शीना की दादी को चारपाई पर बैठाते हुए और शीना का अभिवादन स्वीकार करते हुए कहा।
           "शीना ने तो उसी दिन घर आते ही बता दिया था। क्या बताऊँ बहन बेटा और बहु तो सारा दिन खेत सँभालते हैं, तो घर पर भी तो कोई तो रहे। आज वो घर पर थे तो मैं आ गई। और बता कैसी है तू ..?"-शीना की दादी ने कहा।
           "मैं तो ठीक हूँ तू ये बता घर पर सब कैसे हैं? शीना पोती तू कैसी है? आरती से फिर झगड़ा तो नहीं हुआ ना तेरा..? हा... हा......!" -आरती की दादी ने हँसते हुए पूछा।
           " ..न... नही दादी। "-शीना ने झेंपते हुए जवाब दिया।  इस सवाल के लिए तैयार नहीं थी वो।
           "ऊपरवाले की दया से सब ठीक हैं । अरे बहन बच्चे तो ऐसे ही रहते हैं, अभी लड़ेंगे और अगले ही पल फिर वैसे के वैसे।"-शीना की दादी ने हाथ और कंधा एक तरफ मटकाते हुए कहा।
          "बिल्कुल सही कहा बहन तुमने। बच्चे तो सिर्फ प्यार दिल से करते हैं, बाकी लड़ना-झगड़ना तो ऊपर-ऊपर से ही होता है। तभी तो सब द्वेष-भाव तुरंत ही हवा हो जाता है उनका ।......... पर हम बड़े द्वेष भाव दिल से करते हैं और प्यार ऊपर-ऊपर से तभी हमारा प्यार और भाई-चारा जरा सी खट-पट में तुरंत हवा हो जाता है। हमारी बुद्धि, समझ और शरीर तो समय के साथ बडे़ होते जाते हैं, पर हमारी औकात वैसे ही इतनी छोटी होती जाती है कि जरा सा किसी ने कुछ कहा नहीं कि हर बात हमारी औकात को लग जाती है और हम नाराज होकर बैठ जाते हैं।"-आरती की दादी ने जरा गंभीर होते हुए कहा।
              "अरी बहन औकात को छोडो़, आजकल के लोगों की अकड़ घरों की दीवारों से ज्यादा ऊँची हो गई है और खुद के सामने उनको कोई दिखाई ही नहीं देता।.......हमारा जमाना कुछ और था, लोगों का एक -दूसरे के बिना काम नहीं चलता था। इसलिए लोगों की कदर हुआ करती थी। ...... अब मशीनी दुनिया में एक-दूसरे का सहारा कम हो गया है और कदर भी।"-शीना की दादी ने भी उतनी ही गंभीरता से उत्तर दिया।
             शीना एक बार अपनी दादी को देखती तो एक बार आरती की दादी को, समझ तो उसको कुछ आ नहीं रहा था।  शब्दों को बोलते समय होंठों का आकार कैसा होता है, चेहरा कैसे हिलता है, आँखें कैसे छोटी-बडी़ होती हैं, हाथ कैसे हवा में हिलते हैं, ये सब देखने में वो एकदम तल्लीन हो गई थी।
            तभी अचानक आरती की दादी हँसते हुए बोली - "क्या देख रही हो शीना पोते...! दोनों दादियों के पोपले मुँह......!!"
            इस बात पर दोनों सहेलियाँ जोर-जोर से ठहाके लगाने लगी।
           "जी....?!!"शीना थोड़ी हड़बड़ा कर बोली।

            इतने में आरती की मम्मी चाय ले आई और शीना की दादी के पैर दबाते हुए बोली -"राम-राम चाची कैसी हो..? आज कैसे रस्ता भूल गई हमारी गली का। ये पोती है क्या आपकी..?....ले बेटा दूध पी ले। "दूध का गिलास शीना को देते हुए आरती की मम्मी बोली।
            "राम-राम बहू। हाँ ये मेरी लाडली पोती है। "-शीना की दादी ने चाय पीते हुए जवाब दिया।
             दूध पीकर शीना बोली -"आरती कहाँ गई चाची..? "
"अरे वो तो अपने ताऊजी के यहाँ आँगन में खेल रही होगी। इस पहर किसी में इतना दम नहीं के उसको घर पर रोक ले और खेलने से हटा सके। तुझे खेलने जाना है क्या उसके पास..? "- आरती की मम्मी ने पूछा।
             "हाँ चाची।"-शीना ने उत्तर दिया।
             "ठीक है तो ऐसा करना, यहाँ से गली में सीधे हाथ की तरफ जब तू जाएगी ना तो जो तीसरा घर है, उसके पीछे बहुत बड़ा मैदान है। वहाँ वो गली के बच्चों के साथ खेल रही होगी। वहाँ पहुँच कर तेरी ताईजी से पूछ लेना। ठीक है बेटा।"-आरती की मम्मी ने शीना को पुचकारते हुए बताया।
           "जा बेटा तू आरती के साथ खेल ले। मुझे तो अभी समय लगेगा।"-शीना की दादी ने कहा।
          "ठीक है दादी मैं खेलने जा रही हूँ।" -शीना ने घर से बाहर जाते हुए कहा।
         'आरती की दादी और मम्मी कितनी अच्छी है और आरती कितनी अकड़ू, नकचढी और लड़ाकू ह...!- पता नहीं वो मुझे खिलाएगी भी या नहीं।' शीना सोचते हुए गली से जा रही थी।


जीवन की डगर


कभी-कभी हमारी जिंदगी में ऐसा भी कुछ होता है,
हो जाते हैं अपने हमसे दूर और ये दिल रोता है।

हम लग जाते हैं खुद को समेटने और ये वक्त भाग जाता है,
करें भी क्या इस हालात में ,कुछ समझ भी नहीं आता है।

खो जाता है जीवन कहीं, मुस्काना याद भी नहीं आता है,
धकेलते रहते हैं जीवन की गाङी, जो उदासी से भर जाता है।

इसी धक्कम-पेल में कहानियां सब खो जाएँगी,
खुशियाँ होंगी इतनी,गिनना शुरु करते ही खत्म हो जाएँगी।

जिसने दिए हैं कष्ट हमें, वो ही तो इनसे उबारेगा,
समस्याओं को झेलते हुए ही तो सही रास्ता नजर आएगा ।

समय की जिम्मेदारी को जबरदस्ती अपने ऊपर लाद रहे हैं,
दुखों से भर लिया है मन,सुख इनके कारण भाग रहे हैं।

छोङ दो चिन्ताएँ उनके लिए,जिसने ये पैदा की हैं,
लगता है जीने की बस एक यही राह सही है।

मस्तियों में गुजारें हर पल, ये फिर ना मिलेगा,
मुश्किलों से ही तो, जीवन का हर रंग खिलेगा।

जानते हैं नहीं ये काम इतना आसान,
हमेशा अधर में लटकती रहती है नन्ही जान।

भले ही बीते वक्त को कभी ना भुलाएँ,
पर उसकी वजह से अपना आज तो ना जलाएँ।।

इंसानियत

                    
2013 का फरवरी का महीना था। रात के 9 से ज्यादा ही समय हो गया था। माधवी का सरकारी नौकरी के लिए पेपर था आज। 5:30 तक तो पेपर का ही समय था, ऊपर से परिक्षा केंद्र उसके घर से 2 घंटे की दूरी पर था । दिल्ली में रहती है माधवी और शाम के वक्त दिल्ली में लगने वाले ट्रैफिक जाम से हर दिल्लीवासी वाकिफ है। हर जगह मैट्रो भी कहाँ जाती है। तभी तो 3 घंटे हो गए थे वो अभी तक घऱ नहीं पहुँची थी।
                    उसे बस बदलनी थी, तो बस स्टॅाप पर उतर गई जो उसके घर से 4-5 कि.मी. दूर था। थोङा सुनसान इलाका था और इस पहर आॅटोरिक्शा या रिक्शा भी बहुत कम ही नजर आती हैं। रात के अंधेरे में अकेले उसमें बैठने में भी डर लगता है । "बस ही ठीक है", उसने सोचा।

                   ज्यादा लोग नहीं थे बस स्टॅाप पर। उसके अलावा तीन लङके और एक बुजुर्ग थे बस। शुरुआत में तो वो एकदम सहज थी,उसने अपने आस-पास खङे लोगों पर ध्यान तो दिया पर ज्यादा सोचा नहीं। 10-15 मिनट हो गए थे उसे बस का इंतजार करते हुए। अचानक से उसे महसूस हुअा कि वो तीनों लङके उसकी तरफ देखकर कुछ काना-फूसी कर रहे हैं।
                   अब उसे थोङा डर लगने लगा था उन तीन लङकों की मौजुदगी से, खासकर 2012 की उस घटना के बाद से तो ना चाहते हुए भी शक जैसे सबके दिलों में घर ही कर गया था।
                    माधवी को घबराहट होने लगी थी। वो अपने हाव-भाव में जरा अकङ ले आई ताकि उन लङकों को दिखा सके कि वो घबरा नहीं रही है। जिससे कि एक निडर संदेश पहुँचे उन लङकों तक और हो सकता है इससे उन लङकों के ईरादों में कुछ ढील पङ जाए।

                   पर हो कुछ उल्टा ही रहा था। उन लड़कों की खुसर-फुसर बढ गई और साथ ही साथ वो तीनों माधवी के थोड़ा और करीब भी हो चले थे। ये देखकर माधवी डर गई और उसका दिल जोर-जोर से धक-धक करने लगा। उसे उसका डर और शक सच होते लगने लगे। ये रात का अंधेरा और ऊपर से वो बुजुर्ग आदमी भी किसी बाइक वाले के साथ बैठकर चले गए।
                  वो बार-बार उन लङकों को ही देख रही थी और वो लङके उसे और साथ ही साथ कुछ फुसफुसा भी रहे थे। उसका चेहरा बेचैनी और घबराहट में गरम हो चला था। माथे पर परेशानी से पसीना आना शुरू हो गया था। मन ही मन सिस्टम और पुलिस को बुरा-भला कह रही थी, महिलाओं की सुरक्षा की तरफ उचित ध्यान ना देने के लिए और साथ ही साथ भगवान से प्रार्थना कर रही थी कि उसे किसी तरह सही-सलामत घर पहुँचा दें।
                  उस पल उसे महसूस हुआ जिन लङकियों के साथ कुछ बुरा होता है उन पर क्या गुजरती होगी...! वो बार-बार भगवान से प्रार्थना करती हुई सोचने लगी -" क्या करे...? किसे मदद के लिए बुलाए....? भाई तो आॅफिस के काम से बाहर गए हैं 4 दिन के लिए और पापा दादा-दादी से मिलने गांव गए हैं और रात को 11 बजे तक लौटेंगे।" ऊधर वो लङके उसके और पास आ गए थे।
                 "तो और फिर किसको बुलाए मदद के लिए.....?"- वो इसी ऊधेङ-बुन में गुम थी कि तभी उनमें से एक लङके की आवाज आई-"मैम....! आपको कहाँ जाना है..?? वो ह........। "
                 उनकी बात बीच में ही काटते हुए माधवी बङे रूखे रवैये से बोली-" मुझे चाहे कहीं जाना हो,,....आपसे मतलब..?"
                  उनमें से एक लङका थोङा हकलाते हुआ सा कहने लगा- "वो अंधेरा बहुत है ना... तो आप.... डरना मत.... हम आपको सुरक्षित आपके घर पहुँचने में मदद कर सकते हैं अगर आप........।"
                  "अपने काम से काम रखिए...। मुझे पता है मुझे कहाँ जाना है और कैसे जाना है...!" - माधवी ने उनकी बात काटते हुए कङे शब्दों में कहा।
                 " देखा मैने कहा था ना वो गलत समझेगी.....! किसी का कितना ही भला सोच लो, लोग उसे गलत नजरों से ही देखते हैं। चला था इंसानियत का फर्ज निभाने...! अब निभा ना, बोल ना कुछ अब,,,? कहां तू इन मोहतरमा को सुरक्षित घर छोङने की भलाई की सोच रहा था, कहाँ वो उल्टा हमें कोई गुंडा-मव्वाली समझ बैठी है...! अब बोल क्या करें..?"- वो लङके आपस में कहते हुए सुनाई दिए माधवी को।
                 माधवी की साँसे उखङने लगी थी, पूरा बदन गुस्से औऱ डर से तपने लगा था। हाथ-पैर घबराहट और खौफ से काँपने लगे थे। पसीने छूटने लगे थे, तभी उसके मन में आया-" क्यूँ ना पुलिस को फोन कर दूँ...?"- ये सोचकर अपना फोन निकाला और उसका लाॅक खोलने लगी कि तभी बस आ गई।
                वो भागकर बस में चढ गई। बस में चढकर चैन की सांस ली, आँखें मूँदकर भगवान का शुक्रिया अदा किया और सुरक्षित होने के एहसास से एक हल्की सी मुस्कान उसके चेहरे पर फैल गई।
               लंबी-लंबी और गहरी सांसे लेते हुए उसकी नजर पीछे गई तो उसने देखा वो तीनों लङके भी इसी बस में थे। उसका दिल धक् से रह गया। उसने देखा बस में भीङ ठीक थी, डर वाली बात नहीं है शायद। पर क्या पता ये हथियार दिखाकर, उठाकर ले गए तो....!! माधवी बहुत घबरा गई और ऐसा सोच ही रही थी कि तभी उसका बस-स्टाॅप आ गया।
                वो जल्दी से बस से उतरी, एक बार पीछे मुङकर देखा, जब यकीन हो गया कि कोई नहीं है तो एकदम से भागी और सीधा घर जाकर ही रुकी।
                घऱ जाकर, कल बताऊँगी, ये सोचकर किसी से इस बात का जिक्र नहीं किया। खाना-पीना करने के बाद जब सोने के लिए शांति से अपने कमरे में लेटी तो ये पूरा घटनाक्रम उसकी आँखों के आगे घूमने लगा। सब बातें कानों में गूँजने लगी।
              उसे अब जाकर उन लङकों की बात कुछ-कुछ समझ में आने लगी। जब बार-बार उन बातों पर विचार किया तो उसे साफ-साफ समझ आया कि वो लङके सच में उसकी मदद ही करना चाहते थे पर उसने उनको एकदम ही उल्टा समझ लिया।
               उसे अफसोस हुआ अपने रवैये पर। उसने सोचा उनका शुक्रिया अदा करने की बजाय मैंने उनको बुरा- भला सुना दिया। मेरे इस व्यवहार से सबक लेकर वो अब शायद ही किसी की मदद करेंगे। मैने ये अच्छा नहीं किया।
               पर मैं भी क्या करती आए दिन अखबार में ऐसी-वैसी खबरें पढकर हमारी मानसिकता ऐसी हो गई है कि मदद में उठे हाथ भी हमें क़ातिल हाथ नजर आते हैं। इसी विचारधारा के वशीभूत होकर मैंने भी उनकी नेकदिल कोशिश को समझने की बजाय वो समझा जो रोज अखबारों में पढते हैं।
              बड़े अफसोस की बात है यार....! पर उससे भी बुरी बात ये है कि मैं अपनी गलती सुधार भी नही सकती माफी मांग कर। पता नहीं जिंदगी में कभी उन लड़कों से मिल भी पाउँगी या नहीं, मिले भी तो पहचान ही नहीं पाउँगी शायद।
              हाँ, अपने आप से एक वादा करती हूँ आज, अगर मेरे सामने भी ऐसे ही कोई हालात हुए कभी, तो मैं भी इंसानियत जरूर दिखाउँगी और मदद पक्का करुँगी। क्योंकि मैं भी एक बात समझ गई अच्छे से कि दुनिया में अच्छे इंसान भी हैं और इंसानियत भी जिंदा है।
               ये सोचते-सोचते माधवी मीठी नींद सो गई।
 




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