2013 का फरवरी का महीना था। रात के 9 से ज्यादा ही समय हो गया था। माधवी का सरकारी नौकरी के लिए पेपर था आज। 5:30 तक तो पेपर का ही समय था, ऊपर से परिक्षा केंद्र उसके घर से 2 घंटे की दूरी पर था । दिल्ली में रहती है माधवी और शाम के वक्त दिल्ली में लगने वाले ट्रैफिक जाम से हर दिल्लीवासी वाकिफ है। हर जगह मैट्रो भी कहाँ जाती है। तभी तो 3 घंटे हो गए थे वो अभी तक घऱ नहीं पहुँची थी।
उसे बस बदलनी थी, तो बस स्टॅाप पर उतर गई जो उसके घर से 4-5 कि.मी. दूर था। थोङा सुनसान इलाका था और इस पहर आॅटोरिक्शा या रिक्शा भी बहुत कम ही नजर आती हैं। रात के अंधेरे में अकेले उसमें बैठने में भी डर लगता है । "बस ही ठीक है", उसने सोचा।
ज्यादा लोग नहीं थे बस स्टॅाप पर। उसके अलावा तीन लङके और एक बुजुर्ग थे बस। शुरुआत में तो वो एकदम सहज थी,उसने अपने आस-पास खङे लोगों पर ध्यान तो दिया पर ज्यादा सोचा नहीं। 10-15 मिनट हो गए थे उसे बस का इंतजार करते हुए। अचानक से उसे महसूस हुअा कि वो तीनों लङके उसकी तरफ देखकर कुछ काना-फूसी कर रहे हैं।
अब उसे थोङा डर लगने लगा था उन तीन लङकों की मौजुदगी से, खासकर 2012 की उस घटना के बाद से तो ना चाहते हुए भी शक जैसे सबके दिलों में घर ही कर गया था।
माधवी को घबराहट होने लगी थी। वो अपने हाव-भाव में जरा अकङ ले आई ताकि उन लङकों को दिखा सके कि वो घबरा नहीं रही है। जिससे कि एक निडर संदेश पहुँचे उन लङकों तक और हो सकता है इससे उन लङकों के ईरादों में कुछ ढील पङ जाए।
पर हो कुछ उल्टा ही रहा था। उन लड़कों की खुसर-फुसर बढ गई और साथ ही साथ वो तीनों माधवी के थोड़ा और करीब भी हो चले थे। ये देखकर माधवी डर गई और उसका दिल जोर-जोर से धक-धक करने लगा। उसे उसका डर और शक सच होते लगने लगे। ये रात का अंधेरा और ऊपर से वो बुजुर्ग आदमी भी किसी बाइक वाले के साथ बैठकर चले गए।
वो बार-बार उन लङकों को ही देख रही थी और वो लङके उसे और साथ ही साथ कुछ फुसफुसा भी रहे थे। उसका चेहरा बेचैनी और घबराहट में गरम हो चला था। माथे पर परेशानी से पसीना आना शुरू हो गया था। मन ही मन सिस्टम और पुलिस को बुरा-भला कह रही थी, महिलाओं की सुरक्षा की तरफ उचित ध्यान ना देने के लिए और साथ ही साथ भगवान से प्रार्थना कर रही थी कि उसे किसी तरह सही-सलामत घर पहुँचा दें।
उस पल उसे महसूस हुआ जिन लङकियों के साथ कुछ बुरा होता है उन पर क्या गुजरती होगी...! वो बार-बार भगवान से प्रार्थना करती हुई सोचने लगी -" क्या करे...? किसे मदद के लिए बुलाए....? भाई तो आॅफिस के काम से बाहर गए हैं 4 दिन के लिए और पापा दादा-दादी से मिलने गांव गए हैं और रात को 11 बजे तक लौटेंगे।" ऊधर वो लङके उसके और पास आ गए थे।
"तो और फिर किसको बुलाए मदद के लिए.....?"- वो इसी ऊधेङ-बुन में गुम थी कि तभी उनमें से एक लङके की आवाज आई-"मैम....! आपको कहाँ जाना है..?? वो ह........। "
उनकी बात बीच में ही काटते हुए माधवी बङे रूखे रवैये से बोली-" मुझे चाहे कहीं जाना हो,,....आपसे मतलब..?"
उनमें से एक लङका थोङा हकलाते हुआ सा कहने लगा- "वो अंधेरा बहुत है ना... तो आप.... डरना मत.... हम आपको सुरक्षित आपके घर पहुँचने में मदद कर सकते हैं अगर आप........।"
"अपने काम से काम रखिए...। मुझे पता है मुझे कहाँ जाना है और कैसे जाना है...!" - माधवी ने उनकी बात काटते हुए कङे शब्दों में कहा।
" देखा मैने कहा था ना वो गलत समझेगी.....! किसी का कितना ही भला सोच लो, लोग उसे गलत नजरों से ही देखते हैं। चला था इंसानियत का फर्ज निभाने...! अब निभा ना, बोल ना कुछ अब,,,? कहां तू इन मोहतरमा को सुरक्षित घर छोङने की भलाई की सोच रहा था, कहाँ वो उल्टा हमें कोई गुंडा-मव्वाली समझ बैठी है...! अब बोल क्या करें..?"- वो लङके आपस में कहते हुए सुनाई दिए माधवी को।
माधवी की साँसे उखङने लगी थी, पूरा बदन गुस्से औऱ डर से तपने लगा था। हाथ-पैर घबराहट और खौफ से काँपने लगे थे। पसीने छूटने लगे थे, तभी उसके मन में आया-" क्यूँ ना पुलिस को फोन कर दूँ...?"- ये सोचकर अपना फोन निकाला और उसका लाॅक खोलने लगी कि तभी बस आ गई।
वो भागकर बस में चढ गई। बस में चढकर चैन की सांस ली, आँखें मूँदकर भगवान का शुक्रिया अदा किया और सुरक्षित होने के एहसास से एक हल्की सी मुस्कान उसके चेहरे पर फैल गई।
लंबी-लंबी और गहरी सांसे लेते हुए उसकी नजर पीछे गई तो उसने देखा वो तीनों लङके भी इसी बस में थे। उसका दिल धक् से रह गया। उसने देखा बस में भीङ ठीक थी, डर वाली बात नहीं है शायद। पर क्या पता ये हथियार दिखाकर, उठाकर ले गए तो....!! माधवी बहुत घबरा गई और ऐसा सोच ही रही थी कि तभी उसका बस-स्टाॅप आ गया।
वो जल्दी से बस से उतरी, एक बार पीछे मुङकर देखा, जब यकीन हो गया कि कोई नहीं है तो एकदम से भागी और सीधा घर जाकर ही रुकी।
घऱ जाकर, कल बताऊँगी, ये सोचकर किसी से इस बात का जिक्र नहीं किया। खाना-पीना करने के बाद जब सोने के लिए शांति से अपने कमरे में लेटी तो ये पूरा घटनाक्रम उसकी आँखों के आगे घूमने लगा। सब बातें कानों में गूँजने लगी।
उसे अब जाकर उन लङकों की बात कुछ-कुछ समझ में आने लगी। जब बार-बार उन बातों पर विचार किया तो उसे साफ-साफ समझ आया कि वो लङके सच में उसकी मदद ही करना चाहते थे पर उसने उनको एकदम ही उल्टा समझ लिया।
उसे अफसोस हुआ अपने रवैये पर। उसने सोचा उनका शुक्रिया अदा करने की बजाय मैंने उनको बुरा- भला सुना दिया। मेरे इस व्यवहार से सबक लेकर वो अब शायद ही किसी की मदद करेंगे। मैने ये अच्छा नहीं किया।
पर मैं भी क्या करती आए दिन अखबार में ऐसी-वैसी खबरें पढकर हमारी मानसिकता ऐसी हो गई है कि मदद में उठे हाथ भी हमें क़ातिल हाथ नजर आते हैं। इसी विचारधारा के वशीभूत होकर मैंने भी उनकी नेकदिल कोशिश को समझने की बजाय वो समझा जो रोज अखबारों में पढते हैं।
बड़े अफसोस की बात है यार....! पर उससे भी बुरी बात ये है कि मैं अपनी गलती सुधार भी नही सकती माफी मांग कर। पता नहीं जिंदगी में कभी उन लड़कों से मिल भी पाउँगी या नहीं, मिले भी तो पहचान ही नहीं पाउँगी शायद।
हाँ, अपने आप से एक वादा करती हूँ आज, अगर मेरे सामने भी ऐसे ही कोई हालात हुए कभी, तो मैं भी इंसानियत जरूर दिखाउँगी और मदद पक्का करुँगी। क्योंकि मैं भी एक बात समझ गई अच्छे से कि दुनिया में अच्छे इंसान भी हैं और इंसानियत भी जिंदा है।
ये सोचते-सोचते माधवी मीठी नींद सो गई।