अंत

क्या ये अंत बस यूँही होगा?
ना आँखें नम होंगी,
ना ही रोया जाएगा,
ना गले मिला जाएगा,
ना मुड़ कर देखा जाएगा,
 ना दुआएँ की जाएँगी ,
ना हाथों का स्पर्श दूर होगा,
ना रोकने को हाथ उठेंगे,
ना ही पुकारा जाएगा,
ना बिछड़ने का दर्द दिखेगा,
पर क्या सच में ऐसा मोड़ भी आएगा?
और क्या ये अंत बस यूँही होगा?

क्या यही सच है,
दिल तो रो रहा है,
आँखें नम नहीं तो क्या !
चेहरा रुआँसा नहीं तो क्या !
दिल तो दिल को जकड़े बैठा है,
बदन गले ना मिले तो क्या !
जान भी संग उसके निकले जा रही है,
रोकने को हाथ ना उठे तो क्या !
अंदर-अंदर सब कुछ छिन रहा है,
हाथों के स्पर्श ना छूटे तो क्या !
दहाडें मारकर रो रहा है मन,
गर रोकने को पुकारा नहीं तो क्या !
छलनी हुआ जाता है सीने में कुछ,
जो बिगड़ने का दर्द नहीं दिखा तो क्या !
सच वो नहीं जो दिखा नहीं,
बेदम हुआ जाता है मन तो,
तन पैरों पर खड़ा है तो क्या !
तो फिर क्या ये अंत बस यूँही होगा?

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