दौङ

वो दौङा बेतहाशा था,
जाने किस बात पर रुआँसा था।
आजमाए थे हर मालूम जोर उसने,
पर हार का ही होता खुलासा था।।

सुना था कहते हुए ये उसने,
जीवन उत्सवों का नाम है।
नाकामयाबी दिखाती है कामयाबी की डगर,
उसकी कोशिशों में फिर क्यूँ नजर आती थकान है।।
अश्क बहाए हर दफा उसने इतने।
फिर भी नजर आता सब धुँधला सा था,
वो दौङा बेतहाशा था,
जाने किस बात पर रुआँसा था।

सुनी थी उसने कितनी ही कहानियाँ,
गिर-गिर कर दौङने के कारनामों की।
कुदरत भी देती साथ, जो करता है अनथक प्रयास,
सफलता चूमती कदम, जरुरत नहीं बहानों की।।
वो क्यूँ लङखङा उठता, जब गिर कर उठाता कदम,
क्यूँ फिर उसकी मंजिलों पर छाया कुहाँसा था।
वो दौङा बेतहाशा था,
जाने किस बात पर रुआँसा था।

जब हर बार सपना हुआ चूर-चूर,
तो सोचा चल कुछ देर अब ठहर जाते हैं।
हर प्रयत्न हो गया है अनमना सा,
क्यूँ ना धरा के संग ही बह जाते हैं।।
पर मौत आने से पहले ही क्या मरना,
कोशिशें करते रहने का नाम ही तो आशा था।
वो फिर दौङा बेतहाशा था,
चाहे कितना भी रुआँसा था।।

Share this

Related Posts

Previous
Next Post »

Email Subscription

Enter your email address:

Delivered by FeedBurner