वो आईना जो धुँधला-सा पड़ा है कोने में,
दिखता नहीं कुछ, फर्क नहीं होने या ना होने में।
वो जो कुछ पुरानी किताबें थी,
उनको मैंने जो अनजाने में उठाया,
जो पुरानी बातें छिपी थी पन्नों के बीच,
याद करके वो आज फिर दिल भर आया।
लहर-लहर झिंझोड़ा मुझको यादों ने,
तब दिल ने बेकल होकर फरमाया,
चल धूल झाड़ते हैं उस आईने की,
सन्न रह गई देखकर जो नजर आया।
ये कौन है संजीदा औरत सी?
मैं तो चुलबुली लड़की थी!
हवाओं सी उड़ती-फिरती थी,
शिकन को देती झिड़की थी।
ठहाके मारकर हँसती, दहाडें मारकर रोती थी,
बंद दीवारों में ठंडी हवा के झोंके लाती खिड़की थी,
अब होंठ सिले हुए, हाथ-पैरों में बेड़ियां थी,
पहले कुछ गलत लगता तो, तुरंत लड़-भिड़ती थी।
कुछ सुई सी चुभने लगी है अब सीने में,
अंदर ही फूट पड़ी रुलाई, कैसा ये अहसास?
भावशून्य है अब व्यक्तित्व मेरा,
बचा नहीं कुछ मुझ में खास।
जिम्मेदारियों के नाम पर मिली दम-घोंटू जकड़न,
टूटे-बिखरे सपनों पर से गुजरती, मैं हो गई हूँ बदहवास,
खुलकर जीना चाहूँ तो तमगा मिले बिगङैल का,
मशीन-सा हुक्म बजाती जाऊँ, तो सब कहें शाबास।
मैं भी जिंदा हूँ, आईने ने तोङा ये भ्रमजाल,
समय-नियम से चलने वाली हूँ मैं जिंदा लाश,
यूँही जीवन काट देती, होकर बेदम, बेहाल,
हटाती ना मैं आईने की जो ये धुल, काश!
अब जाग गई हूँ, नाउम्मीदी की निद्रा से क्योंकि,
सबके ईशारों पर नाचकर भी कुछ नहीं मेरे पास,
काटना नहीं वक्त ,अब तो हर पल को जीना है,
बुरे तो बन चुके, अब कैसी है फूलों की आस।
जीवन भर पिसते रहे, फिर भी रहे जाहिल और नामुराद
ताउम्र ताने मिले, अब क्या गम होगा खोने में,
वो आईना जो धूँधला सा पङा था कोने में,
दिख गया सब, फर्क भी है उसके होने ना होने में।।