मनचाहे गीत- अनचाहे सुर

मनचाहे गीतों में क्यों अनचाहे सुर बजते हैं,
खिले गुलजार में भी क्यों मुरझाए फूल खिलते हैं।।

जब-जब ये जीवन खुशियों से सरोबार हुआ है,
तब-तब दिल जाने किस चाहत में उदास बार-बार हुआ है,
पूरी होती मन्नतों के बीच, ये ख्वाब हमारे हर बार जलते हैं।
मनचाहे गीतों में क्यों अनचाहे सुर बजते हैं।
खिले गुलजार में भी क्यों मुरझाए फूल खिलते हैं।।

राहें हैं सही दिशा में, मंजिलें बदल जाती हैं हमेशा
गुजरते तो हैं उन्ही रास्तों से,पूरी नही होती पर मंशा
मिलता है सपनों को आधार,पर बाद में हम आहें भरते हैं
मनचाहे गीतों में क्यों अनचाहे सुर बजते हैं।
खिले गुलजार में भी क्यों मुरझाए फूल खिलते हैं।।

जन्नतों  के ख्वाब सजाए पर जीना छोङ दिया है
साहिलों को तकते-तकते दरिया सुला दिया है
अंजाम पर जाकर हाथों में छाले मिलते हैं
मनचाहे गीतों में क्यों अनचाहे सुर बजते हैं।
खिले गुलजार में भी क्यों मुरझाए फूल खिलते हैं।।

वेदना-राग

तुम बेवफा नही हो,
तो कैसे सहते होगे इस वेदना को ??
जैसे मैं सहती हूँ,
इस धँसती हुई छेदना को।
तुम भी तङपते होगे,
इक पल के लिए ही सही याद करके मुझे।
पर मुझे तो फुर्सत ही नही,
जो तेरे सिवा इस दिल को कुछ और सूझे।।
कितना समझाया खुद को,
और कितना ही खुद को बहलाती हूँ।
पर लगता है सब नकली,
जब वही तङप, बेचैनी दिल में पाती हूँ।
तू भी तो बेचैन होगा,
जब मेरा जिक्र होता होगा तेरे सामने।
इक-दूजे का सपना थे हम,
पर क्यूँ नही मिलाई ये जोङी उस राम ने।।
क्यूँ दिया तुझे वो सब..??
जो मैनें उससे भूले-भटके ही माँगा था।
सब-कुछ देकर मुझको क्यूँ ,
छीन लिया सब और अधर में मुझको टाँगा था।।
जीवन बन गया एक तमाशा,
कैसा खेल है ये ए मेरे खुदा!
मारकर जिंदा रखा तूने,
किस जुर्म की सजा की है अदा..???

दिल का दर्द

खामोशियाँ ये मेरी जले जा रही हैं,
तन्हाईयाँ यादों मे तेरी बहे जा रही हैं।
पूछूँ मैं जो तुझसे ए खुदा??
कसूर क्या था मेरा तू ये तो बता..!!
हर कदम बढा मेरा तेरी मर्जी से,
फिर सपने मेरे तार-तार हुए क्यूँ यूँ बेदर्दी से ??
दिल टूटा मेरा हर ख्वाब की लाश पर,
कहाँ है तेरा चमत्कार मेरे इस मोहपाश पर।
अरमानों के कफन ओढते-ओढते हुआ मुझे ये अहसास,
होनी के हाथों बेदम हैं सब, क्या करुँ मैं किसी से आस।
तङप की बेङियों में जकङकर जीवन मेरा यहीं मरा पङा है,
हँसी आती है अस्तित्व पर,हर कोई बेबस सबसे बङा है।
हाय ! कोई इस बोझ से दिला दे, काश मुझको मुक्ति,
उम्मीदों की लाश ढोने की नहीं मुझमे अब शक्ति।।

कसक दिल की


सूखी झाङियों के झुरमुटों सी ये मेरी जिंदगी,
बहार जो आ भी गई तो काँटों की सौगात ही देगी।।

चाहतों की फुहारें हों या महोब्बतों की बहार,
मेरी तो खैर हर चाहत होती रही है बेजार।
गर मेहरबान हो जाए तकदीर भी तो क्या
सपने ही जल गए सारे,पूरे होंगे भी तो क्या
भला घावों पर नमकीन बारिशें कब राहतें देंगी,
सूखी झाङियों के झुरमुटों सी ये मेरी जिंदगी।
बहार जो आ भी गई तो काँटों की सौगात ही देगी।।

कितना तलाशा तेरा वजूद, ए ईश्क मेरे जहाँ में,
ना मालूम था हम तो हैं आवारा तेरी निगाह में।
रुसवाईयों की दुत्कार मिली इतनी तेरे दरो-दिवार से,
कि सब्र भी हार गया सदियों से इम्तहान लेते इंतजार से।
उजङी अहसासों की जन्नत,आहटें भी तरंगें ना जगा सकेंगी,
सूखी झाङियों के झुरमुटों सी ये मेरी जिंदगी।
बहार जो आ भी गई तो काँटों की सौगात ही देगी।।

पीते रहे जीते रहे, तकलीफों के दर्दे-जहर,
फिर भी कम नहीं होते लकीरों के ये कहर ।
क्या करें उम्मीदें,नाउम्मीदी से है अब याराना,
महफिलों से सजी दुनिया, मेरा आशियाँ है वीराना।
खुशियों की शहनाई, अब मातम का अहसास देंगी,
सूखी झाङियों के झुरमुटों सी ये मेरी जिंदगी।
बहार जो आ भी गई तो काँटों की सौगात ही देगी।।

गुमसुम नजरें

शून्य की ओर ताकती ये नजरें गुम सी हो जाती हैं।
सब गुजरता तो है इनके सामने से पर ये देख कहाँ पाती हैं।।
उस एक  चेहरे को देखने की लालसा से ये यूँ ही भावशून्य हो जाती हैं।
दिल की उस कसक की कभी झलक भी नहीं दिखाती हैं।।
पर तन्हाई में उस तङप को जलते अश्कों संग बहाती हैं।
मंजिल नहीं है जिन राहों की क्यूँ उन्ही को तकते जाती हैं।।
उजङ चुके उस वीराने में एक साये को देखना चाहती हैं।
जबकी तकदीर की रूसवाईयाँ रोज इसे गले लगाती हैं।।
हकीकत भी दिए जख्म पर नमक ही बार-बार लगाती है।
ये भी जानती हैं अब ना होगा वो जो रातें उसे दिखाती हैं।।
हर कदम पर टूट-टूट कर एक ही चाहत उसे रुलाती है ।
यूँही तेरे इंतजार में एक दिन चुपचाप बंद हो जाना चाहती हैं।।
बस तेरे इंतजार में एक दिन चुपचाप बंद हो जाना चाहती हैं।।

अनसमझी कटी डोर

जिंदगी कई कहानियाँ यूँही अधूरी छोङ जाती है,
तब हकीकत क्यूँ कल्पनाओं के आगे दम तोङ जाती है।।
 नही जुङ पाती तब वास्तविकता की टूटी कङियाँ,
सच्चाई और कल्पना मिलकर क्यूँ आधार नही पाती हैं।

इस अधुरी कहानी का रंग, कभी दिखता है सफेद, तो कभी लगता है काला,
जो समझ में आता है गलत, वो देता है कभी नासमझी का हवाला।
विचारों के भूकंप से पनपी है जो, सच और भ्रम के बीच की खाई,
क्यूँ उसको दिल और दिमाग की, प्रतिद्वंद्वता जोङ नही पाती है।
और तब क्यूँ हकीकत कल्पनाओं के आगे दम तोङ जाती है।।

मिन्नतें करते हैं तब हम उनसे, दिखाओ हमें सच का आईना,
पर सोचते हैं वो हम नहीं कर सकेंगे उसकी बदसूरती का सामना।
इसी बीच, धीरे से, इस अधुरेपन पर समय की धूल पट जाती है,
फिर अचानक यादें इस अधुरी कहानी के खाली पन्ने पलट जाती है।
तब हकीकत फिर से कल्पनाओं के आगे दम तोङ जाती है।।

इस अँधियारे कोने पर क्यूँ नही डालता सूरज अपनी किरणें,
चांद भी कभी नहीं निकलता यहां, इस डगर को रोशन करने।
नही चाहिए सूरज की रोशनी, तारों की चमक ही दिखा दो,
कहीं से तो कोई आवाज हो और कोई तो ये बता दो-
मेरी ये कटी डोर उसकी हकदार पतंग से क्यूँ जुङ नही पाती है,
क्यूँ
हर बार हकीकत कल्पनाओं के आगे दम तोङ जाती है।।

एक विरह- मुलाकात

तुमसे मिलने के नाम पर ना हुई थी कोई हलचल,
ना खुशी थी, ना गम था, ना भारी हो रहा था पल-पल।
             पर जब तेरे पास होने का हुआ मुझे अहसास,
                तब होने लगी धङकने बेतरतीब और बदहवाश,
                सपना ना हो ये, बस कर रही थी यही अरदास,
            सोचा देखकर तुमको कैसे सँभालूँगी होशो-हवास।।

आँखों ने नही मेरे दिल ने तुझे पहचाना था,
तुम्हे प्रत्यक्ष देखकर ही हकीकत को माना था,
उस वक्त मेरा अस्तित्व मुझसे ही अन्जाना था,
उसे देखते ही नजरें बदली, जिसे गले से लगाना था।।

तुम तो वही थे दिखाई दिया तुम्हारा वही प्यार,
पर मैं कही खो गई थी होकर बेइंतहा बेकरार,
छुप-छुप, प्यार भरी नजरों से देखा तुझे बार-बार,
पर निष्ठुरता के मुखौटे से होने ना दिया इजहार।।

कितनी बेदर्दी से मैने खुद को था मारा,
नजरअंदाज किया उसे जो था खुद से भी प्यारा,
बिछुङनेे के नाम से रुँध गया था गला बेचारा,
खा ना पाई कुछ तभी तो था बहाना मारा।।

मन कह रहा था क्यूँ आई? भाग जाऊँ मैं यहाँ से,
पर कितनी तङप उठी थी जुदा होने के नाम से ,
तुम भी तो कितने बेचैन हो गए थे इस अहसास से,
धरती में समा जाती, अच्छा था, उस प्यास से।।

तुझसे दूर होते वक्त हो गई थी मैं पत्थर,
जल कर, भस्म हो गया सब, तुझे जाता देखकर,
कितना प्यार था, जो जतलाया तुमने, आखिरी अलविदा कहकर,
तुझे कभी अपने प्यार का अहसास ना करा सकी चाहकर।।

चुपचाप आ गई थी मैं छोङकर पीछे अपनी जिंदगी,
खुद से ज्यादा चाहा तुझको पर कर ना सके तुम्हारी बंदगी, मर भी नही सकती, ऊपरवाले देखकर तेरी ऐसी दरिंदगी,
निर्दोष होकर सबकुछ छिन जाने की साथ जाएगी ये शर्मिंदगी।।




राहे-गुजर

खैर मंजिल तो तय हो ही चुकी है,
अब तो देखना है राहे-गुजर क्या होगा।।
कहते हैं लोग जालिम है दुनिया बङी,
पर कम से कम ये गम तो ना होगा
कि अपनों ने ही दिया धोखा।।

बेइंतहा दर्द से जब तङप रहा था दिल
तो भगवान ने कहा- मत रो अंशात्मा,
मुस्करा तेरी गलियों मे अब ना कोई रोङा होगा।।

चाहे-अनचाहे जो दुखाया होगा दिलों को,
बेबसी और मजबूरियों में गुजारा था लम्हों को,
कह रहे हैं- होने वाला है इम्तिहान पूरा ,
लगता है सजा पूरी होने का वक्त होगा।।

जिस ख्याल से ही दहल उठता था दिल,
किया हर समझौता और रोए तिल-तिल,
जब हकीकत बना तो काफूर हुआ सब डर,
अब तो बर्बादियों में ही तो जश्न होगा।
रब ने ही तो जो ये राहे-गुजर चुना होगा।।

मिन्नतों से तो जिल्लतें ही हुई हासिल,
कठिन मिली राहें, क्योंकि हम हैं काबिल,
दर दर भटकना तो लहरें हैं साहिल की,
अब तो ठोकरों में भी अजब सा शबाब होगा।।

तकदीर ने ढाए जब हजारों सितम,
तो रब ने कानों में फुसफुसाई ये नज्म,
परेशानी नही उसमें हो रहा है जो,
क्योंकि होगा वही जो मंजुरे-खुदा होगा।
बस आनंद उठा उसका जो भी राहे-गुजर होगा।।

ऊँच-नीच

प्यारी माँ,
            याद है आपको, उस दिन जब मैं शीतल के घर मेरी किताब लेने जा रही थी, बिना दुपट्टे, तो आपने क्या कहा था- यही बेशरमी तो लङको को बुलावा देती है और कुछ ऊँच-नीच हो जाती है। अपने भाई के साथ जाना, जमाना बङा खराब है, अकेली लङकी के साथ कौन क्या करदे, क्या भरोसा किसी का! लङकी को अकेले घर से बाहर नही जाना चाहिए, बाहर दुनिया बहुत बुरी है। समझी! तब इस ऊँच-नीच का मतलब ठीक से कहाँ समझ आया था मुझे।
                                       पर माँ उस रात तो मैंने कपङे भी एकदम सही पहने थे, दुपट्टा भी ओढा हुआ था। मैंने तो स्कूल से आने के बाद एक बार घर से बाहर झाँका तक नहीं। भाई भी घर पर ही था, फिर मेरे साथ ये ऊँच-नीच क्यूँ हुई माँ?? मुझसे क्या गलती हो गई थी माँ??
                               पता है माँ मुझे बहुत दर्द हो रहा है और उससे भी ज्यादा घिन्न आ रही है, जो हुआ उसको याद कर-करके। वो सब मेरी आँखों के आगे घुम रहा है। मुझे अपने ही शरीर से नफरत हो गई है। छीः.......!! वो सब कितना गन्दा था माँ! सबकुछ गन्दा लग रहा है मुझको-सारी दुनिया गन्दी लग रही है और आप सब भी। तब ये क्यूँ नही बताया माँ घरवाले भी बुरे होते हैं?
                              फिर भी आपने उनको कुछ क्यूँ नही कहा......?? उल्टा मुझे ही मारकर चुप करा दिया। मैंने क्या किया था, मेरा क्या कसुर था?? आपने मुझसे ठीक से बात भी नहीं की।
                              मुझसे नही सहन हो रही ये तकलीफ, ये दर्द और आप लोगों की ये नजरअंदाजी, आपका गुस्सा! आखिर मैने किया ही क्या था माँ? मैं ऐसे नही जी सकती। इसलिए जा रही हूँ सबसे दूर। मेरे कितने सपने थे माँ। बङा अफसर बनना चाहती थी- बुरे लोगों को सजा दिलाना चाहती थी, पर मैं तो अपने ही घर के बुरे आदमियों को ही नही पहचान पाई। बाहरवालो  को कैसे पहचानती भला?
                          माँ आप तो मेरी तकलीफ को समझती ना। बस एक बार तो मुझे सीने से लगा लेती माँ। मैं कैसे भी जी लेती। पर आपने तो मुझे कितना डाँटा, कितना मारा। मुझे तो मेरी गलती का भी नही पता। आपने मेरे साथ ऐसा क्यूं किया माँ??
                             बस अब मैं नही जी सकती। मैं जा रही हूँ। मेरे जाने से भी आप सबको कोई फर्क नही पङेगा ना। पर आप लोगों की ईज्जत तो बच जाएगी। यही तो कह रही थी ना आप - तू मर जाती तो अच्छा होता। तो मैं मर रही हूँ माँ। आपकी बात मान ली मैंने, क्योंकि मैं तो आपकी अच्छी बेटी हूँ ना। पर आप अच्छी नही हो, आप बहुत बुरी  माँ हो, दुनिया की सबसे बुरी माँ!
                       मुझे नही पता दुनिया कैसी थी, आपने कभी देखने ही नही दी। पर मेरे घरवाले बहुत बुरे हैं तो दुनिया तो और भी बुरी होगी शायद। अब तो देखनी भी नही दुनिया ।मैं इस दुनिया में वापिस कभी नही आऊँगी, कभी भी नहीं।
                  आप सबको तो शायद माफ कर दू पर पापा को  कभी नही उनको तो भगवान भी माफ नही करेगा।
             


भगवान ऐसा बाप किसी को ना दे। बहुत नफरत करती हूँ मैं उनसे, इतनी ज्यादा की बता भी नही सकती, मरकर भी करती रहूँगी।

आखिरी बार -- bye माँ, सबको bye।।








माँ ने अपने आँसु झटपट पोंछे और उस खत को रसोई में जाकर जला दिया ताकि किसी को वो खत ना मिले। उसकी मौत का बहाना भी सोच लिया था लोगों के आने से पहले ही।।।।

दिल का टूटा हिस्सा

मेरे दिल का वो हिस्सा,
जो तकदीर की बलिवेदी पर जख्मी पङा है।
इस क्रूर समझौते की घुटन से,
जो हर पल बेचैन होकर तङप रहा है।
उस टूटे हुए हिस्से को मैंने,
फेंक दिया है किसी अंधेरे कोने में।
पर ओढकर निष्ठुरता की चादर भी,
 प्रश्नचिन्ह लगा ना सकी उसके होने में।।
पर फिर भी भींच ली आँखें,
और कानोे पर रख दिए हाथ,
ताकि दिखाई ना दे उसके जख्म,
और सुने ना सिसकियों का आतर्नाद।।
या तो संभल जाएगा खुद ही,
या इस दर्द के हाथों बेदर्दी से कत्ल हो जाएगा।
छोङ दिया है उसको लावारिस,
पर क्या टूटा हिस्सा जुङ पाएगा?
ये क्या सोच रही हूँ मैं?
होता नहीं कभी ऐसा चमत्कार,
कि मरने वाला जी उठे,
और टूटे टुकङों की जुङ जाए दरार।।
उस हिस्से को जब भी छुआ,
तो एक असहनीय पीङ से मरी जाती हूँ,
इसीलिए तो बनकर पत्थर,
उसको अंधेरे कोने में ही छोङकर चली आती हूँ।।

जिंदगी और जीवन

उस खूबसूरत सुबह के बाद आई उस रात ने मेरे होशो-हवास गुम कर दिए। मैं खाली आँखों से आसमान के उस चांद को बेसुध होकर देखते हुए चलती जा रही थी। ना कोई अहसास था, ना कोई सपना था।
ना  ही कोई डर था, ना डर के लिए कुछ बचा ही था। आँखों मे आँसु ना थे और ना नजरों में अहसास था। उस काली अंधेरी रात मे ना दिशा थी, ना राहें  और ना मंजिलें थी। अचानक ठंडी हवाओं का सा अहसास हुआ। कदम उसी दिशा में चल पङे जहाँ से हवाओं में ठंडक आ रही थी।
कदम बढते गए, ठंडक बढती गई। ना कोई ठोकर लगी ना ही किसी ने आवाज दी। हो सकता है ठोकर लगी हो, मैं गिरी भी होंगी, पर खुद की चीत्कारों से शायद कान बहरे हो चुके थे मेरे, इसीलिए कुछ सुना ही नही और अहसास तो बचा ही नही था।

रात का अंधेरा घटने लगा, मेरे कदम बढने लगे पर ठंडक का अहसास कम होता जा रहा था।
मैं और भी तेज चलने लगी । शायद ये सोचा होगा मैंने, भागकर उस ठंडक को पकङ लूँगी और उसी के साथ ये बाकी का सफर तय करूँगी।
सूरज की रोशनी फैलने लगी, सुनहरा सवेरा मेरी आँखों की रोशनी भी लाता सा नजर आया। खूबसूरत लगा वो सुनहरा सवेरा

वो लाल-लाल सूरज! वो सुनहरी सोने सी चमकती धरती! सुबह के उस सौंदर्य ने मेरी नजरों को जिंदा कर दिया। मेरे होंठो पर जानी-पहचानी सी मुस्कान आ गई। मुझे लगा मैं स्वर्ग में हूँ। एक नई फुर्ती मेरे अंदर समा गई जैसे और मेरे कदम सूरज की तरफ बढने लगे। मैं खुश थी कि मुझे मेरा रास्ता मिल गया, तो अब मंजिल भी मिल ही जाएगी। मैं भागती हुई सी चलने लगी।
पर कुछ था जो बिछुङ रहा था, मैंने खुद से पूछा -क्या बिछुङ रहा था..?? मेरे साथ था ही क्या जो बिछङेगा, मेरे पास खोने को कुछ बचा ही नही था ................ तो............. मतलब  अब तो सिर्फ पाने को ही बचा है। हाँ मेरे पास खोने को कुछ नही है, मुझे तो अब बस पाना ही है, बहुत कुछ पाना है! जो पाना चाहती हूँ, वो सब पाना है! इस सोच ने मुझे एक नई खुशी दी, शांति दी और दिया आगे बढने का एक नया जज्बा! मैं चले जा रही थी, मुस्करा रही थी औऱ गुनगुना रही थी! सब कुछ पाने जो चली थी!

क्या हुआ जो वो खूबसूरत सुबह चली गई, ये सुबह भी तो खूबसूरत है। इस सुबह तो मैं सब-कुछ पाने निकली हूँ। इस बात ने तसल्ली दी मुझे। इस बीच कितने काँटे चुभे, कितनी झाङियों ने रास्ते रोके, कितने ही पंछियों की आवाजों ने मेरा ध्यान भटकाना चाहा।
 पर कुछ पाने की ललक ने मुझे हिम्मत ना हारने दी, दर्द ना होने दिया और ना ही मेरा ध्यान भटकने दिया। मैं बढती चली गई और अब हवाओं की ठंडक की तरफ ध्यान नही रहा था मेरा।
            हे भगवान! इस बार अपनी बेटी की चाहतों पर किसी की नजर ना लगने देना, मेरे सर पर अपना साया बनाए रखना!- मैंने भगवान से प्रार्थना करते हुए मन ही मन बुदबुदाया। उसी वक्त, एक तेज ठंडी हवा का झोंका आया, जिससे ऐसा लगा जैेसे भगवान मेरे पास ही है और उन्होने मेरी दुआ कबुल कर ली हो।
            इस ख्याल से ही मैं सावन की फुहार के बाद खिले और साफ-सुथरे बाग की तरह खिल गई। इतनी शांति मिली दिल को कि इसके आगे मुझे हवाओं के मिजाज का अहसास ही नही हुआ। आँखों मे बसे सपने मुझे चलाते गए और मैं चलती गई।
पर अचानक ये आँखों मे जलन सी क्यूँ हो रही है?? हवाएँ गर्म क्यूँ हो रही हैं??  मेरा दिल घबरा सा क्यूँ रहा है??  ये बेचैनी सी क्यूँ हो रही है??
         कुछ नही है पागल! अभी-अभी इतना बङा जख्म जो खाया है, तो बस डर सा लग रहा है। अभी दिल थोङा बीमार है ना; तो अभी उसको थोङे आराम की जरुरत है और बीमार जल्दी घबरा जाता है ना; तो ये भी घबरा रहा है। मैनें अपने आप को समझाया, तसल्ली दी, एक लंबी और गहरी सांस ली।
       मैने खुद को डाँटा-पागल। अब क्यूँ घबरा रही है?? अब तो सब ठीक होने वाला है ना...!? ऐसा कहकर खुद को तसल्ली दी थी या सवाल पूछा था, मैं खुद भी जान नही पाई थी पर अब मैं अच्छा महसूस कर रही थी। मेरे दिल को चैन आ गया था।
                    फिर सन्न से हवाएँ आई औऱ मेरे कानों में सनसनाहट फैला गई। मेरा दिल धक् से रह गया। उन हवाओं के थपेङों में उङती बालु मेरी आँखों में घुस गई। मेरी आँखें बंद हो गई। मैंने अपनी आँखें मसली और धीरे-धीरे खोली, पर वो जरा सी खुली और फिर बंद हो गई।
              धीरे-धीरे आँखें खोली तो लगा जैसे सच में इस बार आँखें खुल गई थी। मैंने चारों और नजरें घुमाई; ये मैं कहाँ आ गई? मैं कहाँ जा रही थी? मैं किसलिए आई यहाँ ? मेरा दिल जोर-जोर से धङकने लगा।
            फिर दिल ने ही जवाब दिया- अरे मैं तो सब कुछ पाने के लिए आई हूँ यहाँ। इसी चाहत ने मुझे ये रास्ता दिखाया है और रास्ते पर चलकर ही तो मंजिल मिलेगी। तभी तो मुझे सब-कुछ मिलेगा। अरे भगवान ने भी अब तक कोई काँटा नहीं चुभने दिया मुझे, कोई झाङी भी नही आने दी रास्ते में, किसी पंछी की आवाज भी नही सुनाई दी। देखा भगवान भी मुझे वो सब दिलाना चाहते हैं, तभी तो मेरे रास्ते की अङचने भी हटा दी। फिर तो मुझे सब-कुछ मिलेगा ही ना। मैं फिर से खुशी से झूम उठी और फिर से नई फूर्ती के साथ आगे बढने लगी।
पर अचानक मेरी आँखें धूल के थपेङों से फिर से बंद हो गई। ओफ्फोह ये धूल भी ना! अब आँखें कैसे खोलूँ? अरे हाँ,... पानी की छीटें आँखों पर मारुँगी तो आँखें आसानी से खुल जाएँगी। आँखों को ठंडक भी तो मिलेगी! ठंडक से याद आया हवाओं में तपिश क्यूँ है? मुझे जलन सी क्यूँ हो रही है? मेरा दिल झमझमा क्यूँ रहा है? एक ये आँखें पहले इनको पानी से धो लेती हूँ। पानी से याद आया मुझे तो प्यास लगी है। प्यास से दिल झमझमा रहा है मेरा। पागल दिल इशारे कर रहा है बता नही रहा उसे क्या चाहिए।
                प्यास लगी है ना, तो बस इतनी सी बात है। लो अभी पानी पी लेते हैं पहले। पानी........................??  पानी से कुछ याद नहीं आ रहा कि पानी से क्या? ए दिल! कुछ देर शांत हो जा! तभी तो मुझे याद आएगा कि पानी से क्या? अरे हाँ....., पर पानी है कहाँ? यही तो याद नहीं आ रहा था, पानी तो चाहिए पर पानी है कहाँ?        पानी.....................पानी.......................पानी।
                अब दिल और भी तेजी से झमझमाने लगा। पानी है कहाँ......???? इस सवाल ने आँखों की रङक और गले की प्यास को और बढा दिया। मैंने खुद को समझाने का कोशिश की- अरे जब मुझे सबकुछ मिल रहा है तो पानी भी तो मिलेगा ना।

              दिमाग ने अंतत: अपनी चुप्पी तोङ ही दी- एक ही बात बार-बार मत दोहरा। पहले तो तु ये बता तेरा ये सबकुछ है क्या?
                दिल ने झट से खुश होकर कहा- लो जी करलो बात!  ये सबकुछ पर ही अटका पङा है। अरे सबकुछ है............................................................???  हाँ सबकुछ..................ये तो मैने सोचा ही नही । ये सबकुछ क्या है?? क्या सबकुछ चाहिए मुझे??
               इस नए सवाल ने तो मेरे होश ही उङा दिए। मैं पता नहीं कहाँ चली आई किसी सबकुछ के पीछे?? मैं इतनी बङी बेवकूफ क्यूँ हूँ?? मैं कभी कुछ ठीक क्यूँ नहीं करती??  मैं इतनी गैरजिम्मेदार क्यूँ हूँ? अब मैं कहाँ जाऊँ? क्या ढूंडु? किसे पुकारुँ??  एक तो प्यास से जान निकली जा रही है और अब तो घबराहट के मारे पूरे शरीर में कंपकंपी होने लगी है।
             मैं चिल्लाई, जोर-जोर से चिल्लाई- कोई है....?.क्या कोई सुन रहा है??.. कोई तो जवाब दो?? कोई है.......कोई है......कोई है??????..... कहते-कहते मैं अपने घुटनो के बल बैठकर जोर-जोर से रोने लगी।
पर इस तरह रोने से प्यास और भी बढ गई। दिल से और तेज आवाजें आने लगी-पानी ... पानी, मुझे तो बस पानी चाहिए। पानी मिल गया तो सब-कुछ मिल जाएगा। पानी ही सब-कुछ है!
दिमाग जोर से चिल्लाया-अपनी झूठी चाहतों के पीछे दौङाता है और सब-कुछ बर्बाद कर देता है। तेरे इस सबकुछ के पीछे भागते-भागते आज कुछ भी पास नहीं है। उन काँटों ने कितना अहसास दिलाना चाहा वापिस लौट जाओ, आगे सिवाए बिन माँगी मौत के कुछ नही मिलेगा। झाङियों ने कितना रोकना चाहा- आगे हमारी छाया भी नसीब नही होगी। पंछियों की आवाजों ने कितना टोका- आगे कोई तुम्हारी मदद की गुहार नही सुन पाएगा।
               आगे तरस जाओगी किसी की आवाज सुनने के लिए, ठोकर लगने के लिए, काँटों के चुभने के लिए और झाङियों में उलझने के लिए।
              पर तू तो सब-कुछ पाने चला था ना!  तू कहाँ किसी की सुनता। सबकुछ के चक्कर में आज जो भी था वो भी ना रहने दिया।
             अब तू ऐसे ही प्यासी मरेगी। एसे ही तङपेगी। यहाँ तो बादल भी नहीं बरसेंगे कभी। ओह! ऊपर वाले क्या माँगू तुझसे?  मरना तो है ही शायद अब, बस एक घूट ही दिला दे। बस एक घूँट, ज्यादा कुछ नही माँग रही। उससे कम से कम मेरी मौत तो प्यासी नहीं रहेगी। ये कहकर दिमाग दहाङें मारकर रोने लगा।
              दिल भी ना रोक सका खुद को, वो भी रोने लगा। इन दोनों की रुलाई से मेरी घबराहट भी चीत्कारों में बदल गई। हाँ मैं रो रही थी, जोर-जोर से रो रही थी। गले की आवाज सूख गई थी और आँखों से आँसु भी ना आए क्योंकि आँखों का पानी घुसे रेत ने पी लिया, वो भी तो बरसों से प्यासा था। पता नहीं जिंदगी में ऐसा गीला अहसास उसको कभी हुआ भी होगा या नही??
             दिमाग फिर से चिल्लाया- ये सब तेरी वजह से है दिल, सिर्फ तेरी वजह से। काश तू उन झूठे छलावों के पीछे ना भागा होता तो आज ये दिन ना देखना पङता! तूने हमें कहीं का नही छोङा। अब क्या करें?  कुछ समझ नहीं आ रहा।
            दिल इस बार-बार की तानाकशी से तंग आकर बोला- क्या सपने देखना गलत है? मेरी गलती तो बस इतनी है ना कि मैनें एक सपना देखा और उसे पूरा करने के लिए एक रास्ता चुना। मैनें किसी का बुरा तो नही किया ना, बल्कि मैने तो किसी का बुरा सोचा तक नही, फिर मेरे साथ बुरा क्यूँ हुआ? मेरे वश में और था भी क्या?  मैं तो सिर्फ कोशिश कर सकती थी ना । मैं इस बात का अंदाजा कैसे लगा सकती हूँ कि किस रास्ते का अंजाम क्या होगा। मगर मुझे एक बात  बता दिमाग-जब तुझे ये सब कुछ पहले से ही पता था तो तु पहले कहाँ था?  पहले क्यूँ नही बोला? तब एक भी बार क्यूँ नही रोका मुझे तुमने? अब क्यूँ बार-बार ताने दे रहा है?  अब क्यूँ बङा बन रहा है?
                 दिल की ये बात सुनकर दिमाग को एक झटका सा लगा, अचानक से वो समझ आ गया जिसकी तरफ उसका ध्यान ही नही गया था। ये समझ आते ही सुन्न हो गया दिमाग और ये अहसास हुआ - वो भी बराबर का जिम्मेवार है जो भी हुआ उसमें।
               दिमाग ने अपनी गलती मानी और कहा- तो अब क्या करें। कुछ भी समझ नहीं आ रहा। कहाँ जाएं?  क्या करे? किसको पुकारें??  कौन सुनेगा हमारी पुकार?? हमें भी तब समझ आया है जब सब खत्म होने वाला है।
दिल ने रुआँसे सुर में कहा - अब किया भी क्या जा सकता है? सिवाय इस इंतजार के कि कौनसा पल हमारा आखिरी पल होगा। क्या कभी सोचा था ऐसा भी एक वक्त आएगा,समय रेत की तरह हाथों से फिसलता चला जाएगा, उसको पकङने की जितनी कोशिश करेंगे उतना ही और भी तेजी से वो फिसलेगा।उसे तो हर हाल में फिसलना ही है चाहे पकङने की कोशिश करो या नही, तो ऐसे में किया भी क्या जा सकता है।अब तो बस..............  बस...... सब खत्म ही होगा।
            इस बात पर अचानक दिमाग चहकते हुए बोला- जब सब खत्म होना ही है और वक्त को गुजरना ही है तो क्या पता ये सब खत्म हो जाए और ये बुरा वक्त गुजर जाए..............????
             दिल ने जवाब दिया-  हा-हा....। अब तू वही गलती कर रहा है जो मैंने की थी। भ्रम में मत रह। मेरे लिए तो जिंदगी अब समझ से बाहर की बात हो गई है। क्या करें क्या नही कुछ समझ में ही नही आता। कोरे ख्वाब मत देख तकलीफ के अलावा कुछ नही मिलेगा। अब बस कर!  मुझे इन बातों पर और खुद पर गुस्सा आता है।
           दिमाग फिर से बोला- अरे तू मेरी बात समझ एक बार; देख अगर हम ऐसे ही हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहे तब भी यही हाल होना है और अगर हम इस हालात को बदलने की कोशिश करते हैं तो दो बातें हो सकती हैं - एक तो कुछ नहीं बदलेगा, और अंत यही होना है, तो वो तो वैसे भी यही होना है।
और दूसरा...???? - दिल ने जिज्ञासा में पूछा।
ये कि शायद कम से कम ऐसा अंत तो ना हो.....!- दिमाग ने जवाब दिया।
                     बात तो तुम ठीक कह रहे हो। दिल ने भी हामी भरते हुए कहा। तो चलो फिर करते हैं कोशिश एक बार ओर या फिर आखिरी बार।
                      दिल और दिमाग जब एकमत हो गए तो मुझे भी ढाढस हुआ और एक नई ऊर्जा से फिर से कदम आगे बढाए।
              चेहरे पर एक संतुष्टी झलक रही थी, कदमों में दृढता थी और दिल में एक इरादा, पर कोई खौफ ना था क्योंकि अंजाम का कोई डर जो अब नही था।
             हाँ, एक बात जरुर समझ में आ गई कि जीवन में कभी हार नही माननी चाहिए, क्योंकि हार मानने से भी कहाँ कुछ बदलेगा। हो सकता है कोशिश करने पर भी कुछ ना बदले पर कम से कम सर झुकाकर तो अपने अंजाम का सामना नहीं करना पङेगा।
                     कदम बढते जा रहे थे, नजरें धुँधली होती जा रही थी पर हौंसला नहीं थका था। अब आँखों के आगे अँधेरा छाता जा रहा था और अचानक चक्कर आया, मैं धङाम से गिर गई और बेहोश हो गई। कुछ गीला- गीला अहसास हुआ तो कुछ होश सँभला और मुँह से निकला--पानी।

                                               

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