उस खूबसूरत सुबह के बाद आई उस रात ने मेरे होशो-हवास गुम कर दिए। मैं खाली आँखों से आसमान के उस चांद को बेसुध होकर देखते हुए चलती जा रही थी। ना कोई अहसास था, ना कोई सपना था।
ना ही कोई डर था, ना डर के लिए कुछ बचा ही था। आँखों मे आँसु ना थे और ना नजरों में अहसास था। उस काली अंधेरी रात मे ना दिशा थी, ना राहें और ना मंजिलें थी। अचानक ठंडी हवाओं का सा अहसास हुआ। कदम उसी दिशा में चल पङे जहाँ से हवाओं में ठंडक आ रही थी।
कदम बढते गए, ठंडक बढती गई। ना कोई ठोकर लगी ना ही किसी ने आवाज दी। हो सकता है ठोकर लगी हो, मैं गिरी भी होंगी, पर खुद की चीत्कारों से शायद कान बहरे हो चुके थे मेरे, इसीलिए कुछ सुना ही नही और अहसास तो बचा ही नही था।
रात का अंधेरा घटने लगा, मेरे कदम बढने लगे पर ठंडक का अहसास कम होता जा रहा था।
मैं और भी तेज चलने लगी । शायद ये सोचा होगा मैंने, भागकर उस ठंडक को पकङ लूँगी और उसी के साथ ये बाकी का सफर तय करूँगी।
सूरज की रोशनी फैलने लगी, सुनहरा सवेरा मेरी आँखों की रोशनी भी लाता सा नजर आया। खूबसूरत लगा वो सुनहरा सवेरा
वो लाल-लाल सूरज! वो सुनहरी सोने सी चमकती धरती! सुबह के उस सौंदर्य ने मेरी नजरों को जिंदा कर दिया। मेरे होंठो पर जानी-पहचानी सी मुस्कान आ गई। मुझे लगा मैं स्वर्ग में हूँ। एक नई फुर्ती मेरे अंदर समा गई जैसे और मेरे कदम सूरज की तरफ बढने लगे। मैं खुश थी कि मुझे मेरा रास्ता मिल गया, तो अब मंजिल भी मिल ही जाएगी। मैं भागती हुई सी चलने लगी।
पर कुछ था जो बिछुङ रहा था, मैंने खुद से पूछा -क्या बिछुङ रहा था..?? मेरे साथ था ही क्या जो बिछङेगा, मेरे पास खोने को कुछ बचा ही नही था ................ तो............. मतलब अब तो सिर्फ पाने को ही बचा है। हाँ मेरे पास खोने को कुछ नही है, मुझे तो अब बस पाना ही है, बहुत कुछ पाना है! जो पाना चाहती हूँ, वो सब पाना है! इस सोच ने मुझे एक नई खुशी दी, शांति दी और दिया आगे बढने का एक नया जज्बा! मैं चले जा रही थी, मुस्करा रही थी औऱ गुनगुना रही थी! सब कुछ पाने जो चली थी!
क्या हुआ जो वो खूबसूरत सुबह चली गई, ये सुबह भी तो खूबसूरत है। इस सुबह तो मैं सब-कुछ पाने निकली हूँ। इस बात ने तसल्ली दी मुझे। इस बीच कितने काँटे चुभे, कितनी झाङियों ने रास्ते रोके, कितने ही पंछियों की आवाजों ने मेरा ध्यान भटकाना चाहा।
पर कुछ पाने की ललक ने मुझे हिम्मत ना हारने दी, दर्द ना होने दिया और ना ही मेरा ध्यान भटकने दिया। मैं बढती चली गई और अब हवाओं की ठंडक की तरफ ध्यान नही रहा था मेरा।
हे भगवान! इस बार अपनी बेटी की चाहतों पर किसी की नजर ना लगने देना, मेरे सर पर अपना साया बनाए रखना!- मैंने भगवान से प्रार्थना करते हुए मन ही मन बुदबुदाया। उसी वक्त, एक तेज ठंडी हवा का झोंका आया, जिससे ऐसा लगा जैेसे भगवान मेरे पास ही है और उन्होने मेरी दुआ कबुल कर ली हो।
इस ख्याल से ही मैं सावन की फुहार के बाद खिले और साफ-सुथरे बाग की तरह खिल गई। इतनी शांति मिली दिल को कि इसके आगे मुझे हवाओं के मिजाज का अहसास ही नही हुआ। आँखों मे बसे सपने मुझे चलाते गए और मैं चलती गई।
पर अचानक ये आँखों मे जलन सी क्यूँ हो रही है?? हवाएँ गर्म क्यूँ हो रही हैं?? मेरा दिल घबरा सा क्यूँ रहा है?? ये बेचैनी सी क्यूँ हो रही है??
कुछ नही है पागल! अभी-अभी इतना बङा जख्म जो खाया है, तो बस डर सा लग रहा है। अभी दिल थोङा बीमार है ना; तो अभी उसको थोङे आराम की जरुरत है और बीमार जल्दी घबरा जाता है ना; तो ये भी घबरा रहा है। मैनें अपने आप को समझाया, तसल्ली दी, एक लंबी और गहरी सांस ली।
मैने खुद को डाँटा-पागल। अब क्यूँ घबरा रही है?? अब तो सब ठीक होने वाला है ना...!? ऐसा कहकर खुद को तसल्ली दी थी या सवाल पूछा था, मैं खुद भी जान नही पाई थी पर अब मैं अच्छा महसूस कर रही थी। मेरे दिल को चैन आ गया था।
फिर सन्न से हवाएँ आई औऱ मेरे कानों में सनसनाहट फैला गई। मेरा दिल धक् से रह गया। उन हवाओं के थपेङों में उङती बालु मेरी आँखों में घुस गई। मेरी आँखें बंद हो गई। मैंने अपनी आँखें मसली और धीरे-धीरे खोली, पर वो जरा सी खुली और फिर बंद हो गई।
धीरे-धीरे आँखें खोली तो लगा जैसे सच में इस बार आँखें खुल गई थी। मैंने चारों और नजरें घुमाई; ये मैं कहाँ आ गई? मैं कहाँ जा रही थी? मैं किसलिए आई यहाँ ? मेरा दिल जोर-जोर से धङकने लगा।

फिर दिल ने ही जवाब दिया- अरे मैं तो सब कुछ पाने के लिए आई हूँ यहाँ। इसी चाहत ने मुझे ये रास्ता दिखाया है और रास्ते पर चलकर ही तो मंजिल मिलेगी। तभी तो मुझे सब-कुछ मिलेगा। अरे भगवान ने भी अब तक कोई काँटा नहीं चुभने दिया मुझे, कोई झाङी भी नही आने दी रास्ते में, किसी पंछी की आवाज भी नही सुनाई दी। देखा भगवान भी मुझे वो सब दिलाना चाहते हैं, तभी तो मेरे रास्ते की अङचने भी हटा दी। फिर तो मुझे सब-कुछ मिलेगा ही ना। मैं फिर से खुशी से झूम उठी और फिर से नई फूर्ती के साथ आगे बढने लगी।
पर अचानक मेरी आँखें धूल के थपेङों से फिर से बंद हो गई। ओफ्फोह ये धूल भी ना! अब आँखें कैसे खोलूँ? अरे हाँ,... पानी की छीटें आँखों पर मारुँगी तो आँखें आसानी से खुल जाएँगी। आँखों को ठंडक भी तो मिलेगी! ठंडक से याद आया हवाओं में तपिश क्यूँ है? मुझे जलन सी क्यूँ हो रही है? मेरा दिल झमझमा क्यूँ रहा है? एक ये आँखें पहले इनको पानी से धो लेती हूँ। पानी से याद आया मुझे तो प्यास लगी है। प्यास से दिल झमझमा रहा है मेरा। पागल दिल इशारे कर रहा है बता नही रहा उसे क्या चाहिए।
प्यास लगी है ना, तो बस इतनी सी बात है। लो अभी पानी पी लेते हैं पहले। पानी........................?? पानी से कुछ याद नहीं आ रहा कि पानी से क्या? ए दिल! कुछ देर शांत हो जा! तभी तो मुझे याद आएगा कि पानी से क्या? अरे हाँ....., पर पानी है कहाँ? यही तो याद नहीं आ रहा था, पानी तो चाहिए पर पानी है कहाँ? पानी.....................पानी.......................पानी।
अब दिल और भी तेजी से झमझमाने लगा। पानी है कहाँ......???? इस सवाल ने आँखों की रङक और गले की प्यास को और बढा दिया। मैंने खुद को समझाने का कोशिश की- अरे जब मुझे सबकुछ मिल रहा है तो पानी भी तो मिलेगा ना।
दिमाग ने अंतत: अपनी चुप्पी तोङ ही दी- एक ही बात बार-बार मत दोहरा। पहले तो तु ये बता तेरा ये सबकुछ है क्या?
दिल ने झट से खुश होकर कहा- लो जी करलो बात! ये सबकुछ पर ही अटका पङा है। अरे सबकुछ है............................................................??? हाँ सबकुछ..................ये तो मैने सोचा ही नही । ये सबकुछ क्या है?? क्या सबकुछ चाहिए मुझे??
इस नए सवाल ने तो मेरे होश ही उङा दिए। मैं पता नहीं कहाँ चली आई किसी सबकुछ के पीछे?? मैं इतनी बङी बेवकूफ क्यूँ हूँ?? मैं कभी कुछ ठीक क्यूँ नहीं करती?? मैं इतनी गैरजिम्मेदार क्यूँ हूँ? अब मैं कहाँ जाऊँ? क्या ढूंडु? किसे पुकारुँ?? एक तो प्यास से जान निकली जा रही है और अब तो घबराहट के मारे पूरे शरीर में कंपकंपी होने लगी है।
मैं चिल्लाई, जोर-जोर से चिल्लाई- कोई है....?.क्या कोई सुन रहा है??.. कोई तो जवाब दो?? कोई है.......कोई है......कोई है??????..... कहते-कहते मैं अपने घुटनो के बल बैठकर जोर-जोर से रोने लगी।
पर इस तरह रोने से प्यास और भी बढ गई। दिल से और तेज आवाजें आने लगी-पानी ... पानी, मुझे तो बस पानी चाहिए। पानी मिल गया तो सब-कुछ मिल जाएगा। पानी ही सब-कुछ है!
दिमाग जोर से चिल्लाया-अपनी झूठी चाहतों के पीछे दौङाता है और सब-कुछ बर्बाद कर देता है। तेरे इस सबकुछ के पीछे भागते-भागते आज कुछ भी पास नहीं है। उन काँटों ने कितना अहसास दिलाना चाहा वापिस लौट जाओ, आगे सिवाए बिन माँगी मौत के कुछ नही मिलेगा। झाङियों ने कितना रोकना चाहा- आगे हमारी छाया भी नसीब नही होगी। पंछियों की आवाजों ने कितना टोका- आगे कोई तुम्हारी मदद की गुहार नही सुन पाएगा।
आगे तरस जाओगी किसी की आवाज सुनने के लिए, ठोकर लगने के लिए, काँटों के चुभने के लिए और झाङियों में उलझने के लिए।
पर तू तो सब-कुछ पाने चला था ना! तू कहाँ किसी की सुनता। सबकुछ के चक्कर में आज जो भी था वो भी ना रहने दिया।
अब तू ऐसे ही प्यासी मरेगी। एसे ही तङपेगी। यहाँ तो बादल भी नहीं बरसेंगे कभी। ओह! ऊपर वाले क्या माँगू तुझसे? मरना तो है ही शायद अब, बस एक घूट ही दिला दे। बस एक घूँट, ज्यादा कुछ नही माँग रही। उससे कम से कम मेरी मौत तो प्यासी नहीं रहेगी। ये कहकर दिमाग दहाङें मारकर रोने लगा।
दिल भी ना रोक सका खुद को, वो भी रोने लगा। इन दोनों की रुलाई से मेरी घबराहट भी चीत्कारों में बदल गई। हाँ मैं रो रही थी, जोर-जोर से रो रही थी। गले की आवाज सूख गई थी और आँखों से आँसु भी ना आए क्योंकि आँखों का पानी घुसे रेत ने पी लिया, वो भी तो बरसों से प्यासा था। पता नहीं जिंदगी में ऐसा गीला अहसास उसको कभी हुआ भी होगा या नही??
दिमाग फिर से चिल्लाया- ये सब तेरी वजह से है दिल, सिर्फ तेरी वजह से। काश तू उन झूठे छलावों के पीछे ना भागा होता तो आज ये दिन ना देखना पङता! तूने हमें कहीं का नही छोङा। अब क्या करें? कुछ समझ नहीं आ रहा।
दिल इस बार-बार की तानाकशी से तंग आकर बोला- क्या सपने देखना गलत है? मेरी गलती तो बस इतनी है ना कि मैनें एक सपना देखा और उसे पूरा करने के लिए एक रास्ता चुना। मैनें किसी का बुरा तो नही किया ना, बल्कि मैने तो किसी का बुरा सोचा तक नही, फिर मेरे साथ बुरा क्यूँ हुआ? मेरे वश में और था भी क्या? मैं तो सिर्फ कोशिश कर सकती थी ना । मैं इस बात का अंदाजा कैसे लगा सकती हूँ कि किस रास्ते का अंजाम क्या होगा। मगर मुझे एक बात बता दिमाग-जब तुझे ये सब कुछ पहले से ही पता था तो तु पहले कहाँ था? पहले क्यूँ नही बोला? तब एक भी बार क्यूँ नही रोका मुझे तुमने? अब क्यूँ बार-बार ताने दे रहा है? अब क्यूँ बङा बन रहा है?
दिल की ये बात सुनकर दिमाग को एक झटका सा लगा, अचानक से वो समझ आ गया जिसकी तरफ उसका ध्यान ही नही गया था। ये समझ आते ही सुन्न हो गया दिमाग और ये अहसास हुआ - वो भी बराबर का जिम्मेवार है जो भी हुआ उसमें।
दिमाग ने अपनी गलती मानी और कहा- तो अब क्या करें। कुछ भी समझ नहीं आ रहा। कहाँ जाएं? क्या करे? किसको पुकारें?? कौन सुनेगा हमारी पुकार?? हमें भी तब समझ आया है जब सब खत्म होने वाला है।
दिल ने रुआँसे सुर में कहा - अब किया भी क्या जा सकता है? सिवाय इस इंतजार के कि कौनसा पल हमारा आखिरी पल होगा। क्या कभी सोचा था ऐसा भी एक वक्त आएगा,समय रेत की तरह हाथों से फिसलता चला जाएगा, उसको पकङने की जितनी कोशिश करेंगे उतना ही और भी तेजी से वो फिसलेगा।उसे तो हर हाल में फिसलना ही है चाहे पकङने की कोशिश करो या नही, तो ऐसे में किया भी क्या जा सकता है।अब तो बस.............. बस...... सब खत्म ही होगा।
इस बात पर अचानक दिमाग चहकते हुए बोला- जब सब खत्म होना ही है और वक्त को गुजरना ही है तो क्या पता ये सब खत्म हो जाए और ये बुरा वक्त गुजर जाए..............????
दिल ने जवाब दिया- हा-हा....। अब तू वही गलती कर रहा है जो मैंने की थी। भ्रम में मत रह। मेरे लिए तो जिंदगी अब समझ से बाहर की बात हो गई है। क्या करें क्या नही कुछ समझ में ही नही आता। कोरे ख्वाब मत देख तकलीफ के अलावा कुछ नही मिलेगा। अब बस कर! मुझे इन बातों पर और खुद पर गुस्सा आता है।
दिमाग फिर से बोला- अरे तू मेरी बात समझ एक बार; देख अगर हम ऐसे ही हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहे तब भी यही हाल होना है और अगर हम इस हालात को बदलने की कोशिश करते हैं तो दो बातें हो सकती हैं - एक तो कुछ नहीं बदलेगा, और अंत यही होना है, तो वो तो वैसे भी यही होना है।
और दूसरा...???? - दिल ने जिज्ञासा में पूछा।
ये कि शायद कम से कम ऐसा अंत तो ना हो.....!- दिमाग ने जवाब दिया।
बात तो तुम ठीक कह रहे हो। दिल ने भी हामी भरते हुए कहा। तो चलो फिर करते हैं कोशिश एक बार ओर या फिर आखिरी बार।

दिल और दिमाग जब एकमत हो गए तो मुझे भी ढाढस हुआ और एक नई ऊर्जा से फिर से कदम आगे बढाए।
चेहरे पर एक संतुष्टी झलक रही थी, कदमों में दृढता थी और दिल में एक इरादा, पर कोई खौफ ना था क्योंकि अंजाम का कोई डर जो अब नही था।
हाँ, एक बात जरुर समझ में आ गई कि जीवन में कभी हार नही माननी चाहिए, क्योंकि हार मानने से भी कहाँ कुछ बदलेगा। हो सकता है कोशिश करने पर भी कुछ ना बदले पर कम से कम सर झुकाकर तो अपने अंजाम का सामना नहीं करना पङेगा।
कदम बढते जा रहे थे, नजरें धुँधली होती जा रही थी पर हौंसला नहीं थका था। अब आँखों के आगे अँधेरा छाता जा रहा था और अचानक चक्कर आया, मैं धङाम से गिर गई और बेहोश हो गई। कुछ गीला- गीला अहसास हुआ तो कुछ होश सँभला और मुँह से निकला--पानी।