वही कहानी

बस वही पुरानी सुनसान राहें थी,
था बस वही खालीपन और कड़कती धूप।।

एक उसका ही साया बचा था,
भस्म हो चुका था जीवन का हर रुप।
कदम थके थे और पैरों में पड़े थे छाले,
फिर भी नजर नहीं आता था हमसाया स्वरूप।
काली-सफेद हो चुकी झुलसकर सब दिशाएँ,
बस एक बरसात की चाह में दुआएँ भी की थी खूब।
फिर भी बस वही पुरानी सुनसान राहें थी,
था बस वही खालीपन और कड़कती धूप।।

सोचा हर बार चलो करते हैं फिर नया आगाज,
नए सुरों से सजाते हैं फिर से एक नया साज।
खुद को हर बार दोहराने से, पर होनी ना आई बाज,
हर बार वही गलियारे क्यूँ मिलते हैं, ना समझे राज।।
बहुत सजाई उम्मीदें फिर भी हालात रहे वैसे ही कुरूप,
और बस वही पुरानी सुनसान राहें थी,
था बस वही खालीपन और कड़कती धूप।।

बेजान हो चुके जज्बातों में डालने में लगे रहे जान,
पर फरिश्ता बनने की चाह में बनते गए शैतान।
एकरंगी जीवन में औरों के इंद्रधनुष देखकर हुए हैरान,
हर बार की नाकामियों में ढूँढते रह गए जीत के निशान।।
रेत के महलों सा ढहता देखा हर सपना खूब,
बस वही पुरानी सुनसान राहें थी,
था बस वही खालीपन और कड़कती धूप।।

अंत

क्या ये अंत बस यूँही होगा?
ना आँखें नम होंगी,
ना ही रोया जाएगा,
ना गले मिला जाएगा,
ना मुड़ कर देखा जाएगा,
 ना दुआएँ की जाएँगी ,
ना हाथों का स्पर्श दूर होगा,
ना रोकने को हाथ उठेंगे,
ना ही पुकारा जाएगा,
ना बिछड़ने का दर्द दिखेगा,
पर क्या सच में ऐसा मोड़ भी आएगा?
और क्या ये अंत बस यूँही होगा?

क्या यही सच है,
दिल तो रो रहा है,
आँखें नम नहीं तो क्या !
चेहरा रुआँसा नहीं तो क्या !
दिल तो दिल को जकड़े बैठा है,
बदन गले ना मिले तो क्या !
जान भी संग उसके निकले जा रही है,
रोकने को हाथ ना उठे तो क्या !
अंदर-अंदर सब कुछ छिन रहा है,
हाथों के स्पर्श ना छूटे तो क्या !
दहाडें मारकर रो रहा है मन,
गर रोकने को पुकारा नहीं तो क्या !
छलनी हुआ जाता है सीने में कुछ,
जो बिगड़ने का दर्द नहीं दिखा तो क्या !
सच वो नहीं जो दिखा नहीं,
बेदम हुआ जाता है मन तो,
तन पैरों पर खड़ा है तो क्या !
तो फिर क्या ये अंत बस यूँही होगा?

दौङ

वो दौङा बेतहाशा था,
जाने किस बात पर रुआँसा था।
आजमाए थे हर मालूम जोर उसने,
पर हार का ही होता खुलासा था।।

सुना था कहते हुए ये उसने,
जीवन उत्सवों का नाम है।
नाकामयाबी दिखाती है कामयाबी की डगर,
उसकी कोशिशों में फिर क्यूँ नजर आती थकान है।।
अश्क बहाए हर दफा उसने इतने।
फिर भी नजर आता सब धुँधला सा था,
वो दौङा बेतहाशा था,
जाने किस बात पर रुआँसा था।

सुनी थी उसने कितनी ही कहानियाँ,
गिर-गिर कर दौङने के कारनामों की।
कुदरत भी देती साथ, जो करता है अनथक प्रयास,
सफलता चूमती कदम, जरुरत नहीं बहानों की।।
वो क्यूँ लङखङा उठता, जब गिर कर उठाता कदम,
क्यूँ फिर उसकी मंजिलों पर छाया कुहाँसा था।
वो दौङा बेतहाशा था,
जाने किस बात पर रुआँसा था।

जब हर बार सपना हुआ चूर-चूर,
तो सोचा चल कुछ देर अब ठहर जाते हैं।
हर प्रयत्न हो गया है अनमना सा,
क्यूँ ना धरा के संग ही बह जाते हैं।।
पर मौत आने से पहले ही क्या मरना,
कोशिशें करते रहने का नाम ही तो आशा था।
वो फिर दौङा बेतहाशा था,
चाहे कितना भी रुआँसा था।।

बरसात का त्यौहार

ये बादलों के नीले पहाङ,
जो आसमान के हैं उस पार।
पुकारते हैं हमें कि देखो,
प्रकृति ने किया फिर से हार-श्रृंगार।।

छाई पेङों पर नई हरियाली,
जब आया बरसात का त्यौहार।
झमाझम बरसते हैं मेघ ऐसे,
 कि छा गई है हर ओर बहार।।

हर जीव को मिला नवजीवन,
गाए धरा का कण-कण राग मल्हार।
धुल गई अशुद्धियाँ सारी,
हुई धरती माँ नवयौवन से सरोबार।।

कभी मक्खन समेटे अपने में ये गगन,
तो कभी लाता काली घटाओं के वार।
निचुङती गरमी से दिलाने निजात,
देखो आया सावन का कहार।।

भांत-भांत की सजीवटता झलकती,
नजर आता जीवन का असीमित सार।
मुरझाए फूल भी खिल उठे तब,
जब आसमान से हुई बूँदों की बौछार।।

मीठे-तीखे पकवान भाते,
हवाओं में बहता एक नशीला खुमार।
नीरस, बेरंग से होते क्षणों में ,
अचानक सज जाते रंग बेशुमार।।

टप-टप कर टपकते तन के पानी का,
बारिशें उतारने आई तन का चिपचिपा भार।
खिल उठा हर रुप धरा का,
देखो जब आया बरसात का त्यौहार।।















































आरती और दादी भाग 3- मुलाकात

             
  दो दिन बाद शीना अपनी दादी को लेकर आरती के घर आई। तीन गली के बाद अगली गली में मुड़ते ही, दो घर के बाद, तीसरे घर के सामने पहुँच कर, पीछे मुड़कर पूछने लगी-"दादी यही घर है ना... ?"
              अभी उसकी बात पूरी हुई भी नहीं थी कि उसी समय घर से बाहर भाग कर आती हुई आरती उससे टकरा गई, तो गुस्से से बोली-"देखकर नहीं चल सकती अं.......... !"                पर शीना की दादी को देखते ही अपनी ही बात बीच में ही काटते हुए और अपनी जीभ दांतों तले दबाकर बोली "राम-राम दादी। "
             जीभ निकालकर और आँखें टेढ़ी करके शीना को "ऐंं......" चिढाते हुए बाहर भाग गई। शीना की दादी हँस पड़ी।
            "कौन है आरती... ?? अरे बहन तू...! बड़ा इंतज़ार कराया तुमने तो....! पोती बताना भूल गई थी क्या...? नमस्ते शीना पोती  "-आरती की दादी ने शीना की दादी को चारपाई पर बैठाते हुए और शीना का अभिवादन स्वीकार करते हुए कहा।
           "शीना ने तो उसी दिन घर आते ही बता दिया था। क्या बताऊँ बहन बेटा और बहु तो सारा दिन खेत सँभालते हैं, तो घर पर भी तो कोई तो रहे। आज वो घर पर थे तो मैं आ गई। और बता कैसी है तू ..?"-शीना की दादी ने कहा।
           "मैं तो ठीक हूँ तू ये बता घर पर सब कैसे हैं? शीना पोती तू कैसी है? आरती से फिर झगड़ा तो नहीं हुआ ना तेरा..? हा... हा......!" -आरती की दादी ने हँसते हुए पूछा।
           " ..न... नही दादी। "-शीना ने झेंपते हुए जवाब दिया।  इस सवाल के लिए तैयार नहीं थी वो।
           "ऊपरवाले की दया से सब ठीक हैं । अरे बहन बच्चे तो ऐसे ही रहते हैं, अभी लड़ेंगे और अगले ही पल फिर वैसे के वैसे।"-शीना की दादी ने हाथ और कंधा एक तरफ मटकाते हुए कहा।
          "बिल्कुल सही कहा बहन तुमने। बच्चे तो सिर्फ प्यार दिल से करते हैं, बाकी लड़ना-झगड़ना तो ऊपर-ऊपर से ही होता है। तभी तो सब द्वेष-भाव तुरंत ही हवा हो जाता है उनका ।......... पर हम बड़े द्वेष भाव दिल से करते हैं और प्यार ऊपर-ऊपर से तभी हमारा प्यार और भाई-चारा जरा सी खट-पट में तुरंत हवा हो जाता है। हमारी बुद्धि, समझ और शरीर तो समय के साथ बडे़ होते जाते हैं, पर हमारी औकात वैसे ही इतनी छोटी होती जाती है कि जरा सा किसी ने कुछ कहा नहीं कि हर बात हमारी औकात को लग जाती है और हम नाराज होकर बैठ जाते हैं।"-आरती की दादी ने जरा गंभीर होते हुए कहा।
              "अरी बहन औकात को छोडो़, आजकल के लोगों की अकड़ घरों की दीवारों से ज्यादा ऊँची हो गई है और खुद के सामने उनको कोई दिखाई ही नहीं देता।.......हमारा जमाना कुछ और था, लोगों का एक -दूसरे के बिना काम नहीं चलता था। इसलिए लोगों की कदर हुआ करती थी। ...... अब मशीनी दुनिया में एक-दूसरे का सहारा कम हो गया है और कदर भी।"-शीना की दादी ने भी उतनी ही गंभीरता से उत्तर दिया।
             शीना एक बार अपनी दादी को देखती तो एक बार आरती की दादी को, समझ तो उसको कुछ आ नहीं रहा था।  शब्दों को बोलते समय होंठों का आकार कैसा होता है, चेहरा कैसे हिलता है, आँखें कैसे छोटी-बडी़ होती हैं, हाथ कैसे हवा में हिलते हैं, ये सब देखने में वो एकदम तल्लीन हो गई थी।
            तभी अचानक आरती की दादी हँसते हुए बोली - "क्या देख रही हो शीना पोते...! दोनों दादियों के पोपले मुँह......!!"
            इस बात पर दोनों सहेलियाँ जोर-जोर से ठहाके लगाने लगी।
           "जी....?!!"शीना थोड़ी हड़बड़ा कर बोली।

            इतने में आरती की मम्मी चाय ले आई और शीना की दादी के पैर दबाते हुए बोली -"राम-राम चाची कैसी हो..? आज कैसे रस्ता भूल गई हमारी गली का। ये पोती है क्या आपकी..?....ले बेटा दूध पी ले। "दूध का गिलास शीना को देते हुए आरती की मम्मी बोली।
            "राम-राम बहू। हाँ ये मेरी लाडली पोती है। "-शीना की दादी ने चाय पीते हुए जवाब दिया।
             दूध पीकर शीना बोली -"आरती कहाँ गई चाची..? "
"अरे वो तो अपने ताऊजी के यहाँ आँगन में खेल रही होगी। इस पहर किसी में इतना दम नहीं के उसको घर पर रोक ले और खेलने से हटा सके। तुझे खेलने जाना है क्या उसके पास..? "- आरती की मम्मी ने पूछा।
             "हाँ चाची।"-शीना ने उत्तर दिया।
             "ठीक है तो ऐसा करना, यहाँ से गली में सीधे हाथ की तरफ जब तू जाएगी ना तो जो तीसरा घर है, उसके पीछे बहुत बड़ा मैदान है। वहाँ वो गली के बच्चों के साथ खेल रही होगी। वहाँ पहुँच कर तेरी ताईजी से पूछ लेना। ठीक है बेटा।"-आरती की मम्मी ने शीना को पुचकारते हुए बताया।
           "जा बेटा तू आरती के साथ खेल ले। मुझे तो अभी समय लगेगा।"-शीना की दादी ने कहा।
          "ठीक है दादी मैं खेलने जा रही हूँ।" -शीना ने घर से बाहर जाते हुए कहा।
         'आरती की दादी और मम्मी कितनी अच्छी है और आरती कितनी अकड़ू, नकचढी और लड़ाकू ह...!- पता नहीं वो मुझे खिलाएगी भी या नहीं।' शीना सोचते हुए गली से जा रही थी।


जीवन की डगर


कभी-कभी हमारी जिंदगी में ऐसा भी कुछ होता है,
हो जाते हैं अपने हमसे दूर और ये दिल रोता है।

हम लग जाते हैं खुद को समेटने और ये वक्त भाग जाता है,
करें भी क्या इस हालात में ,कुछ समझ भी नहीं आता है।

खो जाता है जीवन कहीं, मुस्काना याद भी नहीं आता है,
धकेलते रहते हैं जीवन की गाङी, जो उदासी से भर जाता है।

इसी धक्कम-पेल में कहानियां सब खो जाएँगी,
खुशियाँ होंगी इतनी,गिनना शुरु करते ही खत्म हो जाएँगी।

जिसने दिए हैं कष्ट हमें, वो ही तो इनसे उबारेगा,
समस्याओं को झेलते हुए ही तो सही रास्ता नजर आएगा ।

समय की जिम्मेदारी को जबरदस्ती अपने ऊपर लाद रहे हैं,
दुखों से भर लिया है मन,सुख इनके कारण भाग रहे हैं।

छोङ दो चिन्ताएँ उनके लिए,जिसने ये पैदा की हैं,
लगता है जीने की बस एक यही राह सही है।

मस्तियों में गुजारें हर पल, ये फिर ना मिलेगा,
मुश्किलों से ही तो, जीवन का हर रंग खिलेगा।

जानते हैं नहीं ये काम इतना आसान,
हमेशा अधर में लटकती रहती है नन्ही जान।

भले ही बीते वक्त को कभी ना भुलाएँ,
पर उसकी वजह से अपना आज तो ना जलाएँ।।

इंसानियत

                    
2013 का फरवरी का महीना था। रात के 9 से ज्यादा ही समय हो गया था। माधवी का सरकारी नौकरी के लिए पेपर था आज। 5:30 तक तो पेपर का ही समय था, ऊपर से परिक्षा केंद्र उसके घर से 2 घंटे की दूरी पर था । दिल्ली में रहती है माधवी और शाम के वक्त दिल्ली में लगने वाले ट्रैफिक जाम से हर दिल्लीवासी वाकिफ है। हर जगह मैट्रो भी कहाँ जाती है। तभी तो 3 घंटे हो गए थे वो अभी तक घऱ नहीं पहुँची थी।
                    उसे बस बदलनी थी, तो बस स्टॅाप पर उतर गई जो उसके घर से 4-5 कि.मी. दूर था। थोङा सुनसान इलाका था और इस पहर आॅटोरिक्शा या रिक्शा भी बहुत कम ही नजर आती हैं। रात के अंधेरे में अकेले उसमें बैठने में भी डर लगता है । "बस ही ठीक है", उसने सोचा।

                   ज्यादा लोग नहीं थे बस स्टॅाप पर। उसके अलावा तीन लङके और एक बुजुर्ग थे बस। शुरुआत में तो वो एकदम सहज थी,उसने अपने आस-पास खङे लोगों पर ध्यान तो दिया पर ज्यादा सोचा नहीं। 10-15 मिनट हो गए थे उसे बस का इंतजार करते हुए। अचानक से उसे महसूस हुअा कि वो तीनों लङके उसकी तरफ देखकर कुछ काना-फूसी कर रहे हैं।
                   अब उसे थोङा डर लगने लगा था उन तीन लङकों की मौजुदगी से, खासकर 2012 की उस घटना के बाद से तो ना चाहते हुए भी शक जैसे सबके दिलों में घर ही कर गया था।
                    माधवी को घबराहट होने लगी थी। वो अपने हाव-भाव में जरा अकङ ले आई ताकि उन लङकों को दिखा सके कि वो घबरा नहीं रही है। जिससे कि एक निडर संदेश पहुँचे उन लङकों तक और हो सकता है इससे उन लङकों के ईरादों में कुछ ढील पङ जाए।

                   पर हो कुछ उल्टा ही रहा था। उन लड़कों की खुसर-फुसर बढ गई और साथ ही साथ वो तीनों माधवी के थोड़ा और करीब भी हो चले थे। ये देखकर माधवी डर गई और उसका दिल जोर-जोर से धक-धक करने लगा। उसे उसका डर और शक सच होते लगने लगे। ये रात का अंधेरा और ऊपर से वो बुजुर्ग आदमी भी किसी बाइक वाले के साथ बैठकर चले गए।
                  वो बार-बार उन लङकों को ही देख रही थी और वो लङके उसे और साथ ही साथ कुछ फुसफुसा भी रहे थे। उसका चेहरा बेचैनी और घबराहट में गरम हो चला था। माथे पर परेशानी से पसीना आना शुरू हो गया था। मन ही मन सिस्टम और पुलिस को बुरा-भला कह रही थी, महिलाओं की सुरक्षा की तरफ उचित ध्यान ना देने के लिए और साथ ही साथ भगवान से प्रार्थना कर रही थी कि उसे किसी तरह सही-सलामत घर पहुँचा दें।
                  उस पल उसे महसूस हुआ जिन लङकियों के साथ कुछ बुरा होता है उन पर क्या गुजरती होगी...! वो बार-बार भगवान से प्रार्थना करती हुई सोचने लगी -" क्या करे...? किसे मदद के लिए बुलाए....? भाई तो आॅफिस के काम से बाहर गए हैं 4 दिन के लिए और पापा दादा-दादी से मिलने गांव गए हैं और रात को 11 बजे तक लौटेंगे।" ऊधर वो लङके उसके और पास आ गए थे।
                 "तो और फिर किसको बुलाए मदद के लिए.....?"- वो इसी ऊधेङ-बुन में गुम थी कि तभी उनमें से एक लङके की आवाज आई-"मैम....! आपको कहाँ जाना है..?? वो ह........। "
                 उनकी बात बीच में ही काटते हुए माधवी बङे रूखे रवैये से बोली-" मुझे चाहे कहीं जाना हो,,....आपसे मतलब..?"
                  उनमें से एक लङका थोङा हकलाते हुआ सा कहने लगा- "वो अंधेरा बहुत है ना... तो आप.... डरना मत.... हम आपको सुरक्षित आपके घर पहुँचने में मदद कर सकते हैं अगर आप........।"
                  "अपने काम से काम रखिए...। मुझे पता है मुझे कहाँ जाना है और कैसे जाना है...!" - माधवी ने उनकी बात काटते हुए कङे शब्दों में कहा।
                 " देखा मैने कहा था ना वो गलत समझेगी.....! किसी का कितना ही भला सोच लो, लोग उसे गलत नजरों से ही देखते हैं। चला था इंसानियत का फर्ज निभाने...! अब निभा ना, बोल ना कुछ अब,,,? कहां तू इन मोहतरमा को सुरक्षित घर छोङने की भलाई की सोच रहा था, कहाँ वो उल्टा हमें कोई गुंडा-मव्वाली समझ बैठी है...! अब बोल क्या करें..?"- वो लङके आपस में कहते हुए सुनाई दिए माधवी को।
                 माधवी की साँसे उखङने लगी थी, पूरा बदन गुस्से औऱ डर से तपने लगा था। हाथ-पैर घबराहट और खौफ से काँपने लगे थे। पसीने छूटने लगे थे, तभी उसके मन में आया-" क्यूँ ना पुलिस को फोन कर दूँ...?"- ये सोचकर अपना फोन निकाला और उसका लाॅक खोलने लगी कि तभी बस आ गई।
                वो भागकर बस में चढ गई। बस में चढकर चैन की सांस ली, आँखें मूँदकर भगवान का शुक्रिया अदा किया और सुरक्षित होने के एहसास से एक हल्की सी मुस्कान उसके चेहरे पर फैल गई।
               लंबी-लंबी और गहरी सांसे लेते हुए उसकी नजर पीछे गई तो उसने देखा वो तीनों लङके भी इसी बस में थे। उसका दिल धक् से रह गया। उसने देखा बस में भीङ ठीक थी, डर वाली बात नहीं है शायद। पर क्या पता ये हथियार दिखाकर, उठाकर ले गए तो....!! माधवी बहुत घबरा गई और ऐसा सोच ही रही थी कि तभी उसका बस-स्टाॅप आ गया।
                वो जल्दी से बस से उतरी, एक बार पीछे मुङकर देखा, जब यकीन हो गया कि कोई नहीं है तो एकदम से भागी और सीधा घर जाकर ही रुकी।
                घऱ जाकर, कल बताऊँगी, ये सोचकर किसी से इस बात का जिक्र नहीं किया। खाना-पीना करने के बाद जब सोने के लिए शांति से अपने कमरे में लेटी तो ये पूरा घटनाक्रम उसकी आँखों के आगे घूमने लगा। सब बातें कानों में गूँजने लगी।
              उसे अब जाकर उन लङकों की बात कुछ-कुछ समझ में आने लगी। जब बार-बार उन बातों पर विचार किया तो उसे साफ-साफ समझ आया कि वो लङके सच में उसकी मदद ही करना चाहते थे पर उसने उनको एकदम ही उल्टा समझ लिया।
               उसे अफसोस हुआ अपने रवैये पर। उसने सोचा उनका शुक्रिया अदा करने की बजाय मैंने उनको बुरा- भला सुना दिया। मेरे इस व्यवहार से सबक लेकर वो अब शायद ही किसी की मदद करेंगे। मैने ये अच्छा नहीं किया।
               पर मैं भी क्या करती आए दिन अखबार में ऐसी-वैसी खबरें पढकर हमारी मानसिकता ऐसी हो गई है कि मदद में उठे हाथ भी हमें क़ातिल हाथ नजर आते हैं। इसी विचारधारा के वशीभूत होकर मैंने भी उनकी नेकदिल कोशिश को समझने की बजाय वो समझा जो रोज अखबारों में पढते हैं।
              बड़े अफसोस की बात है यार....! पर उससे भी बुरी बात ये है कि मैं अपनी गलती सुधार भी नही सकती माफी मांग कर। पता नहीं जिंदगी में कभी उन लड़कों से मिल भी पाउँगी या नहीं, मिले भी तो पहचान ही नहीं पाउँगी शायद।
              हाँ, अपने आप से एक वादा करती हूँ आज, अगर मेरे सामने भी ऐसे ही कोई हालात हुए कभी, तो मैं भी इंसानियत जरूर दिखाउँगी और मदद पक्का करुँगी। क्योंकि मैं भी एक बात समझ गई अच्छे से कि दुनिया में अच्छे इंसान भी हैं और इंसानियत भी जिंदा है।
               ये सोचते-सोचते माधवी मीठी नींद सो गई।
 




नर-नारी या जीवनसाथी

                                         
   र बड़े स्नेह से उसका हाथ पकड़कर आगे-आगे चल पड़ा तो री उसके पीछे-पीछे मुस्कराती हुई, धीरे-धीरे चल रही थी। र, री की चाल के अनुसार ही चल रहा था। पहला अनुभव था तो री थोड़ा शरमा रही थी, पर खुश थी। र का उसका हाथ पकड़कर चलना उसे अच्छा लग रहा था।
               वो बार-बार पीछे मुड़कर देखता तो वह भी उसकी तरफ देखती, दोनों की नजरें  मिलती और दोनों मुस्करा देते।
              ऐसे ही चलते-चलते समय गुजरता गया।

             और जैसा कि बदलने की तो वक्त की फितरत ही होती है, वैसे ही जीवन के रंग-ढंग के मुताबिक, उनका रवैया भी अब बदलने लगा था।
              र की चाल ने गति पकङ ली और हाथ की पकङ में स्नेह की ढील की बजाय अधिकार की जकङ आने लगी थी, ऊधर री को अब ये नया अनुभव, उसके हाथ की पकङ, किसी सजा की तरह महसूस सी होने लगी थी।
             शुरुआत में तो री ने इस बात को नजरअंदाज कर दिया, पर फिर ये जकङ उसे धीरे-धीरे अखरने लगी और उसके दिल में नाराजगी का बीज बोती चली गई। उसे महसूस होने लगा जैसे वो जेल में बंद है और र को अब उसकी परवाह ही नहीं रही। उसे सिर्फ अपने अधिकारों की पङी है, उसके जज्बातों की कोई कदर ही नही है।
             इस सोच से उसमें एक उदासीनता छा गई और उसकी चाल धीमी हो गई, जिससे उन दोनों की चाल का तालमेल बिगङने लगा।
            अब र को शिकायत होने लगी कि वो उसकी चाल के अनुसार अपनी चाल में बदलाव क्यूँ नही ला रही। वो बार-बार उसको अपनी चाल से तालमेल करने को कहता, कुछ देर अपनी चाल को धीमे भी करता। पर फिर कुछ समय बाद उनका तालमेल बिगड़ जाता, तो वो इस बार-बार के कहने-कहाने से तंग होकर उससे नाराज रहने लगा। उसे शिकायत रहने लगी कि वो उसके साथ-साथ क्यूँ नहीं चलती।
            ऐसे ही अपनी-अपनी नाराजगी में वो एक-दूसरे से खफा-खफा से आगे बढ़ने लगे। वो एक-दूसरे को देख भी तो नहीं पा रहे थे, जो एक-दूसरे का चेहरा देखकर भावनाओं को समझने की कोशिश करते तो।
            र पीछे मुड़कर देखने में अपनी बेइज्जती मानने लगा, तो जब कभी देखता भी तो री को भी उसकी तरफ देखने में अपनी बेइज्जती लगती। दोनों एक दूसरे से खफा, बिना बोले और अपनी-अपनी जिद् में आगे बढते रहे, वक्त कटता रहा।
           दोनों एक-दूसरे को ना देख कर दाएँ-बाएँ देखते हुए चलते रहे।
           री ने दाएँ तरफ देखा कि कोई र अपनी री से बार-बार पीछे मुड़कर पूछ रहा था, उसका ख्याल कर रहा था। कुछ भी करने से पहले उसकी राय जरूर लेता था। इस बात पर उसका गुस्सा और भी बढ गया कि उसका र तो उससे कुछ पूछना तो दूर, उल्टा उस पर अपनी मर्जी थोपता रहता है। अपनी भावनाओं के बारे में बताओ तो उल्टा डाँट देता है।
           उसका भी मन करता है कि कभी वो अपनी मर्जी से चले पर ऐसा करने के लिए र को पीछे आना पड़ता। पर समाज का तो यही नियम था कि र हमेशा आगे चलते हैं और री उनके पीछे-पीछे।

           पर ऐसा क्यों है? -ये सवाल उसका मन बार-बार करता।                                     
           इस बात पर उसका मन हुआ, अभी अपना हाथ छुड़ा कर भाग  जाए कहीं दूर और अचानक से हाथ छुड़वाने के लिए एक झटका दिया जिससे र के हाथ की पकड़ ढीली पड़ गई।
           पर फिर तुरंत र ने उसका हाथ जोर से पकड़ लिया।
           ऊधर जब र ने बाँए तरफ देखा कि कोई री अपने र की चाल के मुताबिक धीरे और तेज हो रही थी तो उसकी नाराजगी की कोई सीमा ना रही। फिर मेरी री क्यूँ इतने नखरे और अकड़ दिखा रही है, इसकी तरह मुझसे लय मिलाकर क्यूँ नहीं चल रही?? - ये सोचते हुए उसने गुस्से में री के हाथ को और भी जोर से जकड़ दिया।
           इस पकड़ से री का हाथ दर्द करने लगा और उस ने फिर हाथ छुङाने की कोशिश की पर र ने फिर जोर से हाथ पकङ लिया।
          र को ये सब साथ सफर के लिए अहम लगता था, तो री को ये सब अपने ऊपर होने वाला अत्याचार।
          र को उसका रवैया अङियल और जिद्दी लगता था, वही री को अपनी तकलीफ जताने का एक माध्यम।
          अपनी-अपनी विचारधारा और आंकलन ने उनके बीच की दूरियाँ औऱ भी बढा दी।

          र ने री को उसके अङियलपन का ताना दिया और अपनी दाई तरफ दिखाया कि कैसे एक र अपनी री को जिद् करने पर घसीटते हुए लेकर जा रहा था और उसकी बात ना मानने पर उसके साथ हाथा-पाई भी कर रहा था। उसने कहा देख ऐसे र भी होते हैं, पर वो उसके साथ ऐसा कभी नहीं करता, पर फिर भी वह उसकी कदर नहीं करती।
          री ने भी उसे बाई और एक री को दिखाया जो अपने र को अपनी मर्जी से चला रही थी और साथ ही में एक दूसरे र का हाथ पकङकर चल रही थी। उसने कहा कि देखो ऐसी री भी होती हैं। पर वो तो ऐसा करना तो दूर सोच भी नही सकती और फिर भी वो उसकी परवाह नही करता- कहते हुए री ने फिर से अपना हाथ छुङवाने की कोशिश की और इस बार कामयाब भी हो गई।
        उसकी इस हरकत पर र एकदम से सन्न रह गया।
        तभी अचानक इसी कहने-सुनने के दौरान उन्होने एक र और री को देखा जो हाथों की ऊँगलियों में ऊँगली डालकर आगे-पीछे नही बल्कि एक साथ चल रहे थे।
         दोनों एकदम से चुप हो गए औऱ सोचने लगे कि क्यूँ ना एक बार ये आपसी मतभेद भुलाकर, ऐसे चलकर देखा जाए...!!
           दोनों ने एक-दूसरे की तरफ देखा जैसे एक-दूसरे के मन की बात की थाह लेना चाहते हों और फिर ऐसे ही चल पङे।
          साथ-साथ चलने से अब दोनों बङी आसानी से एक-दूसरे का चेहरा देखकर भावनाओं को अंदाजा लगा पा रहे थे। जब भी दोनों में से किसी को एक-दूसरे की दिशा में कुछ देखना होता तो दोनो बङी आसानी से बिना किसी झिझक के एक-दूसरे की दिशा बदल लेते और एक-दूसरे को नजरिया समझ पाते। इस बात से समाज के बनाए नियमों की अवहेलना भी नही हो रही थी।
         दोनों एक-दूसरे की पकङ के दर्द का अंदाजा भी आसानी से लगा पा रहे थे तो बड़े स्नेह और आदर से एक-दूसरे का हाथ पकड़े हुए थे। अब दोनों एक-दूसरे की भावनाओं का आदर करने लगे थे। जिससे दोनों के बीच की खाईयाँ पटने लगी थी।

          ऐसे ही दोनों को साथ चलते-चलते एक अरसा गुजर गया। इस लंबे एक साथ गुजरे अरसे से दोनों को एक बात समझ आई कि हम इंसान अपना ज्यादातर समय र और री के रोने-धोने में गुजार देते हैं, इसके बजाय अगर हम ये वक्त एक साथ मिल-जुल कर गुजारें तो जीवन कहीं ज्यादा सुखद
और सार्थक लगता है।
         अगर हम नर और नारी के अस्तित्व के लिए लड़ने की बजाय, ऊपरवाले के बनाए हुए साथ मिलकर चलने के संगी-साथी की तरह रहें, तो हर दुख-सुख भी कितना शांतिमय और अर्थपूर्ण लगने लगता है। जीवन का हर रंग एक-दूसरे की एक-दूसरे के लिए चाहत और महत्व समझा कर जाता है।




मातृभाषा का दर्द

फिर से उठी है हुक उसके दिल में,
                                 और छलका है आँखों से पानी।
जानती है अच्छे से हर रोज की,
                                अपने बच्चों की मनचाही नादानी।।

गैरों से भला क्या होता है शिकवा,
                               अपनो ने ही तो पैरों तले रौंदा है,
हमेशा की तरह हर घाव पर,
                               उसके दिल में एक ही सवाल कौंधा है।।

क्यूँ अपनी ही मातृभाषा को,
                               नहीं पहचान रही उसकी ही औलाद।
अधुरी आधुनिकता से चुँधियाई,
                               संतानें नहीं सुनती उसकी फरियाद।।

अभिजात्य कहलाने के चक्कर में,
                               सब भूल गए अपनी ही ज़बानी।
अपनी ही भाषा को कर डाला रुसवा,
                              और हो गया हर रिश्ता बेमानी ।।

क्या है तेरे होने में कमी,
                             जो तिरस्कार किया सबने तेरा।
हर कदम पर बदला खुद को इसने,
                            पर ना बसा सकी हमारे दिल में डेरा।।

क्या गलती है इसकी कोई बताए तो जरा,
                            जो उतार दिया सबने अपनी जुबां से।
ओह! हैं हम तो विकासशील,
                            इसके साथ विकसित बन सकेंगे कहाँ से?

स्थापित होना है ना हमको,
                            इसलिए दूसरों की जुबां होनी जरुरी है।
पर समझ लो इतना,
                           जड़ से कटकर पेड़ का फलना कल्पना कोरी है।।

हाय! अब तो छोड़ दी वो उम्मीद,
                            छिपा देती हैं जिन्हें निरादर की बदली।
हे भारत! तेरी ये हिन्दी,
                             भाल की बिन्दी अब पड़ गई धुँधली।।

जीवन-चक्र

ना खुशी का फव्वारा फूटा है,
ना गम की गहराई बढी है।
चढ रहे थे जिस दृढ संयम पर,
हाँ, उसकी स्वस्थ मानसिकता घटी है।
हम तो नहीं बनना चाहते ऐसे,
जिसने प्रभाव की चाहत गढी है ।
उन ख्वाबों की दुनिया में गुम हुए,
जिनके आधार की ही नींव कटी है।
बेसिर-पैर की उम्मीदों ने लगता है,
हमारे दिल की कमियाँ सारी पढी हैं।
पर
 देखो ये क्या हुआ??

बदल गई है ये जिंदगानी,
खत्म हो गई वो कहानी।
जिसने कभी हलचल मचाई थी
हर जीवन की दरिया में,
हैरान कर जाता है,
जीवन का हर ऐसा ही पल,
नहीं जान पाता कोई, क्या था ये,
जो लम्हा बीता था इस जीवन का।
असमंजस में फंस जाते हैं सब,
कुछ भी नहीं आता है समझ में,
कशमकश क्या थी वो जिंदगी,
नहीं समझ पाते कब तक हम ये।।

दादी और आरती- भाग-2- झगङा

       
   "दादी............दादी, कहाँ हो तुम ? मेरे साथ चल जल्दी स्कूल। जल्दी........... जल्दी। दादी...?  कहाँ हो....? माँ,  मेरी दादी कहाँ चली गई ?............ उनको स्कूल जाना था मेरे साथ, अभी इसी समय।"- आरती धड़धड़ाते हुए घर के अंदर आई और सवाल पर सवाल पूछती हुई दादी को ढूँढती हुई पूरे घर में भागती फिरने लगी।
      
 "स्कूल जाना था......?? पर क्यूँ....?? क्या हुआ...??"- माँ ने हैरान होते हुए पूछा।
                    
             "अरे माँ..! वो सब मैं घर लौटने के बाद बताऊँगी। अभी तो देर हो जाएगी। अब जल्दी से बताओ दादी कहाँ खो गयी हैं?"-आरती ने बेचैन और कुंठित होकर फिर से पूछा।
             "अच्छा ..! चल बाद में पूछ लूँगी। तेरी दादी तो तेरे ताऊ के घर गई है।"-माँ ने जवाब दिया।

             "भला ये भी कोई बात हुई..? मैं तो स्कूल से भागती हुई घर आई कि दादी को जल्दी से अपने साथ लेकर जाऊँगी, वो है कि ताऊजी के घर चली गई।............ अच्छा माँ मैं दादी को लेकर ताऊजी के घर से सीधे स्कूल चली जाऊँगी।" -आरती भागती हुई घर से निकलते वक्त जोर से बोलती हुई चली गई।
               "अरे...! पर बात तो बता..... ?"-माँ तो कहती रह गयी पर आरती वहाँ से भागती हुई चली भी गई।
             
"दादी..........!"-आरती दादी का हाथ पकड़कर खींचते हुए बोली - "जल्दी से मेरे साथ स्कूल चल।"
                "अरे...! क्या हुआ...? आज नहीं पोते, कल चल लूँगी। अभी देख मैं तेरे ताऊ जी से कुछ जरुरी बात कर रही हूँ।"-दादी ने जल्दी से जवाब दिया।
               "मेरे साथ चलकर भी तो तुमको बहुत जरुरी काम करना है। ताऊजी तो यही है......, फिर बात कर लेना। पर वो लङकी चली जाएगी अगर अभी तू मेरे साथ ना चली तो। दादी ... चल जल्दी। ताऊजी तुम दादी के घऱ आने के बाद बात कर लेना।"- आरती दादी को खींचकर ले जाते हुए कहने लगी।

5 मिनट बाद वो दोनों स्कूल पहुँच गई।
                "अब तो बता दे क्या जरूरी काम है...? तबसे तो यही कहे जा रही थी स्कूल जाकर बताऊँगी।"-दादी ने पूछा
             "अच्छा तो बताती हूँ ना। वो मेरे क्लास में एक लङकी है ना, क्या नाम है उसका... हाँ शीना।"-आरती ने बताना शुरु किया।
            "कौन शीना ...?"- दादी ने कुछ याद करते हुए पूछा।
           "अरे वही शीना, जिसके बारे में मैंने तुझे उस दिन बताया था,  वही जो सबसे लड़ती रहती है।" -आरती ने बताया।
          "मुझे तो याद नहीं तुमने कब बताया था किसी शीना के बारे में...! खैर जाने दे, और ये तो बता क्या हो गया उस शीना को?"-दादी ने पूछा।
           "ऊसको क्या होना था..! पता है दादी, आज जब मैं पानी पीने आई थी ना ... तो वो नल के पास खङी थी। ना पानी पी रही थी और ऊपर से बातें कर रही थी। तो मैंने ना उसके बाजू से आकर उससे पहले पानी पी लिया। तो पता है ना .... .... .... वो महारानी ना, मुझे मारने लगी..! तो मैने भी उसको मारा। फिर ना .. उसने मेरे बाल पकङकर खींच दिए तो मैने उसके बाल खींच दिए। फिर ना दादी पता है...... उसने एकदम से मुझको धक्का दे दिया। मैं बहुत जोर से गिरी, ये देख मेरी कोहनी पर चोट भी लगी है।"-आरती दादी को अपनी कोहनी दिखाने लगी।
           "अरे, मेरी मुम्मी को तो चोट लग गई....! बता कौन है वो शीना..? अभी उसकी खैर-खबर लेती हूँ।"-दादी ने नकली गुस्सेवाला चेहरा बनाकर बहलाते हुए कहा।
          "और पता है दादी, जब मैं नीचे गिर गई थी ना तो कहने लगी अबकी हाथ लगाया ना मुझको तो मेरे पापा को बुला लाऊँगी।....... तो मैंने कहा तेरे पापा क्या बङे डी.सी लगे हैं...? मैं अभी अपनी दादी को बुलाकर लाती हूँ, उनसे ना सब डरते हैं, मेरे पापा भी। फिर देखूँगी कैसे बोलेंगे तेरे पापा मेरी दादी के सामने....? तो फिर ना बङी सयानी बनके कहने लगी, जा बुला ला किसी को भी, मैं नहीं डरती किसी से भी। तो मैने कहा यही मिलना पानी के पास अभी बुलाकर लाती हूँ मेरी दादी को। ......... अब देखूँगी कहाँ छुपेगी तुमको देखकर....?"-आरती ने आँखें मचकाते हुए घमंड से कहा।
         "अच्छा ये कहा उसने। आई बङी....! मैं भी तो देखूँ कौन है वो किसी से ना डरने वाली...?"- दादी ने अपनी हँसी छिपाते हुए कहा।

         आरती स्कूल के बीच खङी होकर ईधर-उधर शीना तो ढूँढने लगी। तभी शीना उसको पानी के पास किसी से बातें करती हुई दिख गई, तो वो दादी का हाथ पकङकर उस ओर खिंचती हुई जोर से बोली-"दादी देखो वो रही वो नकचढी...! बङबोली....!पागल कहीं की...!"
           "कहाँ.. ? किधर...? मुझे तो नही दिख रही..!"-दादी ने ईधर-उधर देखते हुए पूछा।
            "अरे दादी ये रही...!    देख ये है मेरी दादी ......। अब बोल क्या बोल रही थी तू....? बोल ना..!    ...........कुछ बोलती क्यूँ नहीं अब...?"-रौब झाड़ते हुए बोली आरती।
           "तो तू है शीना..! तुमने मारा कैसे मेरी पोती को...? आगे से ऐसा कुछ किया ना तो तेरी खैर नही। समझी..!"-दादी ने झूठा गुस्सा दिखाते हुए कहा।
            शीना अचानक झेंप गई और ऊपर से आरती दादी के पीछे खड़े होकर टेढे-मेढे मुँह बनाकर शीना को चिढाने लगी।
           "अच्छा पोते...! तेरी स्कूल की छुट्टी हो रखी है तो तू अपना थैला ले गयी थी क्या घर..?"- दादी ने पूछा।
            "नहीं दादी, थैले के चक्कर में पड़ती तो तुझे बुला कर लाने में देर ना हो जाती।"-आरती ने समझाया।
             "तो ठीक है, जल्दी से अपना थैला उठा ले आ। मैं तब तक इसकी अच्छे से खबर लेती हूँ।"- दादी ने कहा।
            "ठीक है दादी अभी लाई।"- आरती ने शीना को चिढाते हुए कहा और अपना थैला लेने क्लास की तरफ भागी।
            "अरे पोते डर मत, असली में थोङी ना डाँट रही थी। अच्छा तेरे पापा का क्या नाम है पोते...?" -दादी ने प्यार से पुचकारते हुए पूछा।
            "मेरे पापा का नाम दलबीर फौजी है।"- शीना ने धीरे से बताया।
             "अच्छा तेरे दादा का नाम केहर सिंह है क्या....?"- दादी की आँखों में चमक थी पूछते समय।
            "हाँ..." - शीना ने छोटा सा जवाब दिया।
            "तो तेरी दादी को आज घर जाकर कहना......, मेरी दादी मास्टर की माँ बुला रही थी और तू भी उसके साथ आना........।    ठीक है बेटा याद रखेगी ना......!  क्या कहेगी जाकर....?" -दादी ने दुलारते हुए पूछा।
            "यही की दादी मास्टर की माँ मिलने के लिए बुला रही है।"- शीना ने थोङा सहज होकर जवाब दिया।
            " शाबाश, तू तो बड़ी सयानी है रे...!"-दादी ने कहा कि तभी आरती थैला ले कर वापस आ गई थी।
             "अच्छा अब जो भी कहा है, भूलना मत...! समझी....! जाकर अपनी दादी को बता देना कि मैंने बुलाया है।... याद रखना।... ठीक है...!" -दादी ने समझाते हुए कहा और आरती से बोली -"चल बेटा घर चलते हैं।"
             थोड़ी सी आगे जाने के बाद दादी फिर से बोली -"बहुत डाँटा मैंने उसको। देखना आगे से ऐसा कुछ वो कभी भूल कर भी नहीं करेगी।"- दादी ने तसल्ली दी।
             "वो तो ठीक है दादी लेकिन उसकी दादी को क्यूँ बुलाया तुमने घर..?" -आरती ने असमंजस में पूछा।
             "अरे..! उसकी दादी के सामने भी तो डाँटूगी ना,इसलिए बुलाया है..!" -दादी ने बात टालते हुए कहा।
              "अच्छा...! तू तो फिर उसकी दादी से भी नहीं डरती ना दादी....! तू तो बड़ी मस्त है दादी..! मैं भी तेरी तरह बनूँगी...!"-आरती चहकते हुए बोली।
               "हा....  हा.... अच्छा...!" -दादी हँसने लगी।

आरती दादी की उँगली पकड़कर उछलते -कूदते घर आ रही थी। दादी पर बड़ा गर्व हो रहा था उसको।






आईना


वो आईना जो धुँधला-सा पड़ा है कोने में,
दिखता नहीं कुछ, फर्क नहीं होने या ना होने में।

वो जो कुछ पुरानी किताबें थी,
  उनको मैंने जो अनजाने में उठाया,
    जो पुरानी बातें छिपी थी पन्नों के बीच,
       याद करके वो आज फिर दिल भर आया।

लहर-लहर झिंझोड़ा मुझको यादों ने,
   तब दिल ने बेकल होकर फरमाया,
     चल धूल झाड़ते हैं उस आईने की,
        सन्न रह गई देखकर जो नजर आया।


ये कौन है संजीदा औरत सी?
  मैं तो चुलबुली लड़की थी!
    हवाओं सी उड़ती-फिरती थी,
      शिकन को देती झिड़की थी।

ठहाके मारकर हँसती, दहाडें मारकर रोती थी,
  बंद दीवारों में ठंडी हवा के झोंके लाती खिड़की थी,
    अब होंठ सिले हुए, हाथ-पैरों में बेड़ियां थी,
       पहले कुछ गलत लगता तो, तुरंत लड़-भिड़ती थी।

कुछ सुई सी चुभने लगी है अब सीने में,
  अंदर ही फूट पड़ी रुलाई, कैसा ये अहसास?
     भावशून्य है अब व्यक्तित्व मेरा,
        बचा नहीं कुछ मुझ में खास।

जिम्मेदारियों के नाम पर मिली दम-घोंटू जकड़न,
  टूटे-बिखरे सपनों पर से गुजरती, मैं हो गई हूँ बदहवास,
     खुलकर जीना चाहूँ तो तमगा मिले बिगङैल का,
        मशीन-सा हुक्म बजाती जाऊँ, तो सब कहें शाबास।

मैं भी जिंदा हूँ, आईने ने तोङा ये भ्रमजाल,
  समय-नियम से चलने वाली हूँ मैं जिंदा लाश,
     यूँही जीवन काट देती, होकर बेदम, बेहाल,
        हटाती ना मैं आईने की जो ये धुल, काश!

अब जाग गई हूँ, नाउम्मीदी की निद्रा से क्योंकि,
  सबके ईशारों पर नाचकर भी कुछ नहीं मेरे पास,
     काटना नहीं वक्त ,अब तो हर पल को जीना है,
       बुरे तो बन चुके, अब कैसी है फूलों की आस।

जीवन भर पिसते रहे, फिर भी रहे जाहिल और नामुराद
    ताउम्र ताने मिले, अब क्या गम होगा खोने में,
      वो आईना जो धूँधला सा पङा था कोने में,
          दिख गया सब, फर्क भी है उसके होने ना होने में।। 



आधा जहाँ

मैं भी तो आजाद पंछी हूँ गगन का,
कैद मुझे कब तक रखोगे ?
खैर उङान है मेरी तो हौंसलों की,
गर,पर भी जो मेरे कुतरोगे।।

बंदिशें कब तक रोक पाएँगी,
बंधन भी कदम जकङ ना पाएँगें,
हाँ, पर प्यार और स्नेह से,
भले ही कदम कुछ देर ठहर जाएँगे।
पर इस ठहराव को तुम नाम ना देना साहिल का,
क्योंकि मैं तो आजाद पंछी हूँ गगन का।
कैद मुझे कब तक रखोगे ?
खैर उङान है मेरी तो हौंसलों की,
गर,पर भी जो मेरे कुतरोगे।।


मेरी परवाज भी है बेखौफ,
वैसे ही जैसे की तुम हो।
समझते हो मुझको कमतर,
जाने किस अना में गुम हो।
है तुम्हारी ही तरह मुझको भी हक लगन का,
क्योंकि मैं भी तो आजाद पंछी हूँ गगन का।
कैद मुझे कब तक रखोगे ?
खैर उङान है मेरी तो हौंसलों की,
गर,पर भी जो मेरे कुतरोगे।।

मेरी भी तो है आधी जमीन,
और आधा आसमान है मेरा,
मैंने भी ख्वाब सजाए हैं दिल में,
जैसे तुझे जगाए है सपना तेरा।
तेरी ही तरह मैं भी किस्सा हूँ रब का,
क्योंकि मैं भी तो आजाद पंछी हूँ गगन का।
कैद मुझे कब तक रखोगे ?
खैर उङान है मेरी तो हौंसलों की,
गर,पर भी जो मेरे कुतरोगे।।


तुफानों को झेल सकती हूँ मैं भी
अकेले अपने दम पर।
तेरी ही तरह हिम्मत मिली है मुझको,
ना खुद पर अंधा दंभ कर।।
बोलने को मेरे यूँही नाम ना दो बहस का,
क्योंकि मैं भी तो आजाद पंछी हूँ गगन का,
कैद मुझे कब तक रखोगे ?
खैर उङान है मेरी तो हौंसलों की,
गर, पर भी जो मेरे कुतरोगे।।

उङान

छूने को अपना आसमान,
   भर ले रे अकेले ही उङान।
     माना ना है कोई संगी-साथी तेरा,
       ना ही है कोई तेरी पहचान।।

जो बेआबरु हो चले हो हर दर से,
   तो बना दो अपना एक जहान।
     मिली हमेशा जो समझौतों की दुत्कार,
       तो बन जा अब खुद ही अपना मान।।

घुट-घुट कर जीते रहे सारी उम्र,
   फिर भी साबित ना कर पाए अपना ईमान।
     है तू तो सितारा-ए-गर्दिश,
       लगे हैं होने पर सवालिया निशान।।

मिलेगा हर सवाल को जवाब,
   होगा जब तेरी कामयाबियों का बखान।
      हैं हँसी के पात्र जिनके लिए आज,
         कल को वो बताएँगे अपना अभिमान।।

माना गिरे नजरों से, मिली जो हर बार हार,
    तिरस्कार भरी नजरों में भी झलकेगा सम्मान।
      माना गुनेहगार है तेरी सोच आज,
         कल उसी हर बात पर होगा सबको गुमान।।

धिक्कारने वाले तुझे आज,
    कहकर पुकारेंगे कल महान।
      छूने को अपना आसमान ,
         बस एक बार फिर भर तो सही अकेले ही उङान।।

माना ना है कोई संगी-साथी तेरा,
होगी एक दिन तेरी भी एक पहचान।।


दादी और आरती- भाग 1- स्कूल का पहला दिन

"दादी, मुझे स्कूल जाना है, मेरा ना बहुत मन कर रहा है। चलो ना दादी। दादी, तुम कुछ बोलती क्यूँ नही? दादी ..... ! दादी .....! सुनो ना, चलो ना ।"- एक छोटे से गाँव की पाँच साल की आरती ने जिद करते हुए कहा।
                बात 1995 की है, बस एक ही सरकारी स्कूल था उस गाँव में और वो भी सिर्फ आठवीं तक का।
                 "सुन तो रही हूँ ना पोते, मेरा मुम्मी...! स्कूल जाना है...? पर अब तो दस से भी ज्यादा समय हो गया है। कल पक्का चल लेंगे, आज तो बहुत देर हो गई है।"- 80 साला दादी ने कहा, जो 60 की लगती थी शरीर से भी और फुर्ती से भी।
                  "नहीं..नहीं..नहीं..,"- पैर पटकते हुए आऱती ने कहा.. "मुझे तो आज ही जाना है और अभी जाना है। मैं कुछ नहीं जानती, अभी चलो ना दादी। "-आरती दादी को हाथ से पकङकर खींचते हुए कहती है।
                 "अच्छा ठीक है बाबा चलती हूँ, जुत्ती तो पहनने  दे एक बार। अरे मेरी जुत्तियाँ कहाँ चली गई भई...?"- दादी ने हैरान होकर पूछा।
                "अभी लाई दादी, मैंने ही उठाकर अंदर रख दी थी तुमको चिढाने के लिए।"- आरती दौड़कर अंदर जाते हुए बोली।

               "मुझे चिढाने के लिए..?? क्या मतलब..??"-दादी ने और भी हैरानी से पूछा।
               "कुछ नहीं दादी, तुम बस चलो ना जल्दी, पहले ही देर हो चुकी है और देर मत करवाओ।"-आरती ने जुत्तियाँ रखकर रौब छाड़ते हुए कहा।
               "अच्छा..! चल मेरी माँ..! मैं देर करवा रही हूँ..!!"- दादी ने हँसते हुए कहा। "अरे देर तो पहले ही हो चुकी है। तभी तो कह रही हूँ कल चलते हैं।"
                "हूं...हूं... दादी...!!"-आरती ठुनकने लगी, एक कंधे को गर्दन से सटाकर, रुठकर एक कोने में जाकर बैठ गई। होंठो को लटकाकर, तिरछी नजरों से दादी को देखने लगी।
               आरती के रूठने के इस अंदाज पर दादी की हँसी छूट गई।अपने हाथ से अपनी हँसी छुपाती हुई कहने लगी- "ओ...हो.. मेरा चाँद तो रूठ गया, मेरा मुम्मा। चल तो चलते हैं ना।"- दादी ने आरती को गले लगाते हुए कहा।
               कुछ देर बाद आरती दादी की ऊँगली पकङकर उछलती-कुदती हुई स्कूल जा रही थी।
                     थोङी देर बाद आरती दादी की ठीक वैसे ही ऊँगली पकङकर उछलती-कुदती हुई वापिस आ रही थी।
            ऱास्ते में उसकी माँ और परिवार की कुछ दूसरी औरतें कुँए से पानी लाने के लिए जाते हुए मिली।

               "कहाँ से आ रही है सवारी..??"-माँ ने पूछा।

             "माँ हम स्कुल गए थे।"-आरती ने बताया।
       "आज...? पर आज तो इतवार है। पता नहीं था क्या..? हमसे पूछ लेते हम ही बता देते।"- माँ ने हैरानी से पूछा।
            "मुझे तो याद ही नहीं था। पूछने का मौका कहाँ दिया इसने। तुम लोग तो खेत में गए थे, इसने जिद कर दी स्कूल जाने की। जा पोते.., तू जाकर खेल ले, वो देख तेरी सारी सहेलियाँ वहाँ खेल रहीं हैं।-दादी ने आरती से कहा।
            "हाँ दादी वो सब खेल रही हैं, मैं भी जाती हूँ खेलने। माँ मैं खेलने जा रही हूँ।"- आरती भागते -भागते बताकर चली गई।
            "..हा..हा "-दादी ने हँसते हुए बताना शुरु किया- "जब चपड़ासी ने बताया कि आज तो इतवार है और आज तो छुट्टी है, तो ये रोने लगी और कहती- .....दादी..! ये क्या बात हुई..?आज ही तो मैं स्कूल आई थी और आज ही इतवार बना दिया,... फिर किसी दिन बना लेना ना इतवार।..! आज तो मैं जाऊँगी स्कूल के अंदर। मुझे नहीं पता,.... मुझे तो अभी जाना है अंदर।  फिर चपड़ासी ने कहा आज तो कोई भी नहीं आया है, कल से आ जाना। आज तो मास्टर जी भी नहीं आए तो तुझे पढाएगा कौन? ...तो कहने लगी... तो क्या हुआ बुला लो मास्टर जी को और कह दो कि इतवार किसी और दिन बना लेना। फिर मैंने समझाया कि मास्टर जी तो दूसरे गाँव में रहते हैं, वहां से उनको कौन बुलाकर लाएगा। ऐ बेटा...! अब जिस दिन मेरी पोती आए ना, उस दिन आगे से इतवार मत बनाना। नहीं तो मुझसे बुरा कोई भी नहीं होगा, समझे..! इस बात पर श्यामू चपड़ासी बोला ठीक है दादी आगे से जिस दिन आरती आएगी उस दिन इतवार नही बनाएँगे और हँसने लगा। तब कहीं जाकर वापस आने को तैयार हुई है ये। "
            इस बात पर सब जोर से हँसे और फिर अपने-अपने काम पर चल दिए।

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