फिर से उठी है हुक उसके दिल में,
और छलका है आँखों से पानी।
जानती है अच्छे से हर रोज की,
अपने बच्चों की मनचाही नादानी।।
गैरों से भला क्या होता है शिकवा,
अपनो ने ही तो पैरों तले रौंदा है,
हमेशा की तरह हर घाव पर,
उसके दिल में एक ही सवाल कौंधा है।।
क्यूँ अपनी ही मातृभाषा को,
नहीं पहचान रही उसकी ही औलाद।
अधुरी आधुनिकता से चुँधियाई,
संतानें नहीं सुनती उसकी फरियाद।।
अभिजात्य कहलाने के चक्कर में,
सब भूल गए अपनी ही ज़बानी।
अपनी ही भाषा को कर डाला रुसवा,
और हो गया हर रिश्ता बेमानी ।।
क्या है तेरे होने में कमी,
जो तिरस्कार किया सबने तेरा।
हर कदम पर बदला खुद को इसने,
पर ना बसा सकी हमारे दिल में डेरा।।
क्या गलती है इसकी कोई बताए तो जरा,
जो उतार दिया सबने अपनी जुबां से।
ओह! हैं हम तो विकासशील,
इसके साथ विकसित बन सकेंगे कहाँ से?
स्थापित होना है ना हमको,
इसलिए दूसरों की जुबां होनी जरुरी है।
पर समझ लो इतना,
जड़ से कटकर पेड़ का फलना कल्पना कोरी है।।
हाय! अब तो छोड़ दी वो उम्मीद,
छिपा देती हैं जिन्हें निरादर की बदली।
हे भारत! तेरी ये हिन्दी,
भाल की बिन्दी अब पड़ गई धुँधली।।
और छलका है आँखों से पानी।
जानती है अच्छे से हर रोज की,
अपने बच्चों की मनचाही नादानी।।
गैरों से भला क्या होता है शिकवा,
अपनो ने ही तो पैरों तले रौंदा है,
हमेशा की तरह हर घाव पर,
उसके दिल में एक ही सवाल कौंधा है।।
क्यूँ अपनी ही मातृभाषा को,
नहीं पहचान रही उसकी ही औलाद।
अधुरी आधुनिकता से चुँधियाई,
संतानें नहीं सुनती उसकी फरियाद।।
अभिजात्य कहलाने के चक्कर में,
सब भूल गए अपनी ही ज़बानी।
अपनी ही भाषा को कर डाला रुसवा,
और हो गया हर रिश्ता बेमानी ।।
क्या है तेरे होने में कमी,
जो तिरस्कार किया सबने तेरा।
हर कदम पर बदला खुद को इसने,
पर ना बसा सकी हमारे दिल में डेरा।।
क्या गलती है इसकी कोई बताए तो जरा,
जो उतार दिया सबने अपनी जुबां से।
ओह! हैं हम तो विकासशील,
इसके साथ विकसित बन सकेंगे कहाँ से?
स्थापित होना है ना हमको,
इसलिए दूसरों की जुबां होनी जरुरी है।
पर समझ लो इतना,
जड़ से कटकर पेड़ का फलना कल्पना कोरी है।।
हाय! अब तो छोड़ दी वो उम्मीद,
छिपा देती हैं जिन्हें निरादर की बदली।
हे भारत! तेरी ये हिन्दी,
भाल की बिन्दी अब पड़ गई धुँधली।।