दादी और आरती- भाग-2- झगङा

       
   "दादी............दादी, कहाँ हो तुम ? मेरे साथ चल जल्दी स्कूल। जल्दी........... जल्दी। दादी...?  कहाँ हो....? माँ,  मेरी दादी कहाँ चली गई ?............ उनको स्कूल जाना था मेरे साथ, अभी इसी समय।"- आरती धड़धड़ाते हुए घर के अंदर आई और सवाल पर सवाल पूछती हुई दादी को ढूँढती हुई पूरे घर में भागती फिरने लगी।
      
 "स्कूल जाना था......?? पर क्यूँ....?? क्या हुआ...??"- माँ ने हैरान होते हुए पूछा।
                    
             "अरे माँ..! वो सब मैं घर लौटने के बाद बताऊँगी। अभी तो देर हो जाएगी। अब जल्दी से बताओ दादी कहाँ खो गयी हैं?"-आरती ने बेचैन और कुंठित होकर फिर से पूछा।
             "अच्छा ..! चल बाद में पूछ लूँगी। तेरी दादी तो तेरे ताऊ के घर गई है।"-माँ ने जवाब दिया।

             "भला ये भी कोई बात हुई..? मैं तो स्कूल से भागती हुई घर आई कि दादी को जल्दी से अपने साथ लेकर जाऊँगी, वो है कि ताऊजी के घर चली गई।............ अच्छा माँ मैं दादी को लेकर ताऊजी के घर से सीधे स्कूल चली जाऊँगी।" -आरती भागती हुई घर से निकलते वक्त जोर से बोलती हुई चली गई।
               "अरे...! पर बात तो बता..... ?"-माँ तो कहती रह गयी पर आरती वहाँ से भागती हुई चली भी गई।
             
"दादी..........!"-आरती दादी का हाथ पकड़कर खींचते हुए बोली - "जल्दी से मेरे साथ स्कूल चल।"
                "अरे...! क्या हुआ...? आज नहीं पोते, कल चल लूँगी। अभी देख मैं तेरे ताऊ जी से कुछ जरुरी बात कर रही हूँ।"-दादी ने जल्दी से जवाब दिया।
               "मेरे साथ चलकर भी तो तुमको बहुत जरुरी काम करना है। ताऊजी तो यही है......, फिर बात कर लेना। पर वो लङकी चली जाएगी अगर अभी तू मेरे साथ ना चली तो। दादी ... चल जल्दी। ताऊजी तुम दादी के घऱ आने के बाद बात कर लेना।"- आरती दादी को खींचकर ले जाते हुए कहने लगी।

5 मिनट बाद वो दोनों स्कूल पहुँच गई।
                "अब तो बता दे क्या जरूरी काम है...? तबसे तो यही कहे जा रही थी स्कूल जाकर बताऊँगी।"-दादी ने पूछा
             "अच्छा तो बताती हूँ ना। वो मेरे क्लास में एक लङकी है ना, क्या नाम है उसका... हाँ शीना।"-आरती ने बताना शुरु किया।
            "कौन शीना ...?"- दादी ने कुछ याद करते हुए पूछा।
           "अरे वही शीना, जिसके बारे में मैंने तुझे उस दिन बताया था,  वही जो सबसे लड़ती रहती है।" -आरती ने बताया।
          "मुझे तो याद नहीं तुमने कब बताया था किसी शीना के बारे में...! खैर जाने दे, और ये तो बता क्या हो गया उस शीना को?"-दादी ने पूछा।
           "ऊसको क्या होना था..! पता है दादी, आज जब मैं पानी पीने आई थी ना ... तो वो नल के पास खङी थी। ना पानी पी रही थी और ऊपर से बातें कर रही थी। तो मैंने ना उसके बाजू से आकर उससे पहले पानी पी लिया। तो पता है ना .... .... .... वो महारानी ना, मुझे मारने लगी..! तो मैने भी उसको मारा। फिर ना .. उसने मेरे बाल पकङकर खींच दिए तो मैने उसके बाल खींच दिए। फिर ना दादी पता है...... उसने एकदम से मुझको धक्का दे दिया। मैं बहुत जोर से गिरी, ये देख मेरी कोहनी पर चोट भी लगी है।"-आरती दादी को अपनी कोहनी दिखाने लगी।
           "अरे, मेरी मुम्मी को तो चोट लग गई....! बता कौन है वो शीना..? अभी उसकी खैर-खबर लेती हूँ।"-दादी ने नकली गुस्सेवाला चेहरा बनाकर बहलाते हुए कहा।
          "और पता है दादी, जब मैं नीचे गिर गई थी ना तो कहने लगी अबकी हाथ लगाया ना मुझको तो मेरे पापा को बुला लाऊँगी।....... तो मैंने कहा तेरे पापा क्या बङे डी.सी लगे हैं...? मैं अभी अपनी दादी को बुलाकर लाती हूँ, उनसे ना सब डरते हैं, मेरे पापा भी। फिर देखूँगी कैसे बोलेंगे तेरे पापा मेरी दादी के सामने....? तो फिर ना बङी सयानी बनके कहने लगी, जा बुला ला किसी को भी, मैं नहीं डरती किसी से भी। तो मैने कहा यही मिलना पानी के पास अभी बुलाकर लाती हूँ मेरी दादी को। ......... अब देखूँगी कहाँ छुपेगी तुमको देखकर....?"-आरती ने आँखें मचकाते हुए घमंड से कहा।
         "अच्छा ये कहा उसने। आई बङी....! मैं भी तो देखूँ कौन है वो किसी से ना डरने वाली...?"- दादी ने अपनी हँसी छिपाते हुए कहा।

         आरती स्कूल के बीच खङी होकर ईधर-उधर शीना तो ढूँढने लगी। तभी शीना उसको पानी के पास किसी से बातें करती हुई दिख गई, तो वो दादी का हाथ पकङकर उस ओर खिंचती हुई जोर से बोली-"दादी देखो वो रही वो नकचढी...! बङबोली....!पागल कहीं की...!"
           "कहाँ.. ? किधर...? मुझे तो नही दिख रही..!"-दादी ने ईधर-उधर देखते हुए पूछा।
            "अरे दादी ये रही...!    देख ये है मेरी दादी ......। अब बोल क्या बोल रही थी तू....? बोल ना..!    ...........कुछ बोलती क्यूँ नहीं अब...?"-रौब झाड़ते हुए बोली आरती।
           "तो तू है शीना..! तुमने मारा कैसे मेरी पोती को...? आगे से ऐसा कुछ किया ना तो तेरी खैर नही। समझी..!"-दादी ने झूठा गुस्सा दिखाते हुए कहा।
            शीना अचानक झेंप गई और ऊपर से आरती दादी के पीछे खड़े होकर टेढे-मेढे मुँह बनाकर शीना को चिढाने लगी।
           "अच्छा पोते...! तेरी स्कूल की छुट्टी हो रखी है तो तू अपना थैला ले गयी थी क्या घर..?"- दादी ने पूछा।
            "नहीं दादी, थैले के चक्कर में पड़ती तो तुझे बुला कर लाने में देर ना हो जाती।"-आरती ने समझाया।
             "तो ठीक है, जल्दी से अपना थैला उठा ले आ। मैं तब तक इसकी अच्छे से खबर लेती हूँ।"- दादी ने कहा।
            "ठीक है दादी अभी लाई।"- आरती ने शीना को चिढाते हुए कहा और अपना थैला लेने क्लास की तरफ भागी।
            "अरे पोते डर मत, असली में थोङी ना डाँट रही थी। अच्छा तेरे पापा का क्या नाम है पोते...?" -दादी ने प्यार से पुचकारते हुए पूछा।
            "मेरे पापा का नाम दलबीर फौजी है।"- शीना ने धीरे से बताया।
             "अच्छा तेरे दादा का नाम केहर सिंह है क्या....?"- दादी की आँखों में चमक थी पूछते समय।
            "हाँ..." - शीना ने छोटा सा जवाब दिया।
            "तो तेरी दादी को आज घर जाकर कहना......, मेरी दादी मास्टर की माँ बुला रही थी और तू भी उसके साथ आना........।    ठीक है बेटा याद रखेगी ना......!  क्या कहेगी जाकर....?" -दादी ने दुलारते हुए पूछा।
            "यही की दादी मास्टर की माँ मिलने के लिए बुला रही है।"- शीना ने थोङा सहज होकर जवाब दिया।
            " शाबाश, तू तो बड़ी सयानी है रे...!"-दादी ने कहा कि तभी आरती थैला ले कर वापस आ गई थी।
             "अच्छा अब जो भी कहा है, भूलना मत...! समझी....! जाकर अपनी दादी को बता देना कि मैंने बुलाया है।... याद रखना।... ठीक है...!" -दादी ने समझाते हुए कहा और आरती से बोली -"चल बेटा घर चलते हैं।"
             थोड़ी सी आगे जाने के बाद दादी फिर से बोली -"बहुत डाँटा मैंने उसको। देखना आगे से ऐसा कुछ वो कभी भूल कर भी नहीं करेगी।"- दादी ने तसल्ली दी।
             "वो तो ठीक है दादी लेकिन उसकी दादी को क्यूँ बुलाया तुमने घर..?" -आरती ने असमंजस में पूछा।
             "अरे..! उसकी दादी के सामने भी तो डाँटूगी ना,इसलिए बुलाया है..!" -दादी ने बात टालते हुए कहा।
              "अच्छा...! तू तो फिर उसकी दादी से भी नहीं डरती ना दादी....! तू तो बड़ी मस्त है दादी..! मैं भी तेरी तरह बनूँगी...!"-आरती चहकते हुए बोली।
               "हा....  हा.... अच्छा...!" -दादी हँसने लगी।

आरती दादी की उँगली पकड़कर उछलते -कूदते घर आ रही थी। दादी पर बड़ा गर्व हो रहा था उसको।






आईना


वो आईना जो धुँधला-सा पड़ा है कोने में,
दिखता नहीं कुछ, फर्क नहीं होने या ना होने में।

वो जो कुछ पुरानी किताबें थी,
  उनको मैंने जो अनजाने में उठाया,
    जो पुरानी बातें छिपी थी पन्नों के बीच,
       याद करके वो आज फिर दिल भर आया।

लहर-लहर झिंझोड़ा मुझको यादों ने,
   तब दिल ने बेकल होकर फरमाया,
     चल धूल झाड़ते हैं उस आईने की,
        सन्न रह गई देखकर जो नजर आया।


ये कौन है संजीदा औरत सी?
  मैं तो चुलबुली लड़की थी!
    हवाओं सी उड़ती-फिरती थी,
      शिकन को देती झिड़की थी।

ठहाके मारकर हँसती, दहाडें मारकर रोती थी,
  बंद दीवारों में ठंडी हवा के झोंके लाती खिड़की थी,
    अब होंठ सिले हुए, हाथ-पैरों में बेड़ियां थी,
       पहले कुछ गलत लगता तो, तुरंत लड़-भिड़ती थी।

कुछ सुई सी चुभने लगी है अब सीने में,
  अंदर ही फूट पड़ी रुलाई, कैसा ये अहसास?
     भावशून्य है अब व्यक्तित्व मेरा,
        बचा नहीं कुछ मुझ में खास।

जिम्मेदारियों के नाम पर मिली दम-घोंटू जकड़न,
  टूटे-बिखरे सपनों पर से गुजरती, मैं हो गई हूँ बदहवास,
     खुलकर जीना चाहूँ तो तमगा मिले बिगङैल का,
        मशीन-सा हुक्म बजाती जाऊँ, तो सब कहें शाबास।

मैं भी जिंदा हूँ, आईने ने तोङा ये भ्रमजाल,
  समय-नियम से चलने वाली हूँ मैं जिंदा लाश,
     यूँही जीवन काट देती, होकर बेदम, बेहाल,
        हटाती ना मैं आईने की जो ये धुल, काश!

अब जाग गई हूँ, नाउम्मीदी की निद्रा से क्योंकि,
  सबके ईशारों पर नाचकर भी कुछ नहीं मेरे पास,
     काटना नहीं वक्त ,अब तो हर पल को जीना है,
       बुरे तो बन चुके, अब कैसी है फूलों की आस।

जीवन भर पिसते रहे, फिर भी रहे जाहिल और नामुराद
    ताउम्र ताने मिले, अब क्या गम होगा खोने में,
      वो आईना जो धूँधला सा पङा था कोने में,
          दिख गया सब, फर्क भी है उसके होने ना होने में।। 



आधा जहाँ

मैं भी तो आजाद पंछी हूँ गगन का,
कैद मुझे कब तक रखोगे ?
खैर उङान है मेरी तो हौंसलों की,
गर,पर भी जो मेरे कुतरोगे।।

बंदिशें कब तक रोक पाएँगी,
बंधन भी कदम जकङ ना पाएँगें,
हाँ, पर प्यार और स्नेह से,
भले ही कदम कुछ देर ठहर जाएँगे।
पर इस ठहराव को तुम नाम ना देना साहिल का,
क्योंकि मैं तो आजाद पंछी हूँ गगन का।
कैद मुझे कब तक रखोगे ?
खैर उङान है मेरी तो हौंसलों की,
गर,पर भी जो मेरे कुतरोगे।।


मेरी परवाज भी है बेखौफ,
वैसे ही जैसे की तुम हो।
समझते हो मुझको कमतर,
जाने किस अना में गुम हो।
है तुम्हारी ही तरह मुझको भी हक लगन का,
क्योंकि मैं भी तो आजाद पंछी हूँ गगन का।
कैद मुझे कब तक रखोगे ?
खैर उङान है मेरी तो हौंसलों की,
गर,पर भी जो मेरे कुतरोगे।।

मेरी भी तो है आधी जमीन,
और आधा आसमान है मेरा,
मैंने भी ख्वाब सजाए हैं दिल में,
जैसे तुझे जगाए है सपना तेरा।
तेरी ही तरह मैं भी किस्सा हूँ रब का,
क्योंकि मैं भी तो आजाद पंछी हूँ गगन का।
कैद मुझे कब तक रखोगे ?
खैर उङान है मेरी तो हौंसलों की,
गर,पर भी जो मेरे कुतरोगे।।


तुफानों को झेल सकती हूँ मैं भी
अकेले अपने दम पर।
तेरी ही तरह हिम्मत मिली है मुझको,
ना खुद पर अंधा दंभ कर।।
बोलने को मेरे यूँही नाम ना दो बहस का,
क्योंकि मैं भी तो आजाद पंछी हूँ गगन का,
कैद मुझे कब तक रखोगे ?
खैर उङान है मेरी तो हौंसलों की,
गर, पर भी जो मेरे कुतरोगे।।

उङान

छूने को अपना आसमान,
   भर ले रे अकेले ही उङान।
     माना ना है कोई संगी-साथी तेरा,
       ना ही है कोई तेरी पहचान।।

जो बेआबरु हो चले हो हर दर से,
   तो बना दो अपना एक जहान।
     मिली हमेशा जो समझौतों की दुत्कार,
       तो बन जा अब खुद ही अपना मान।।

घुट-घुट कर जीते रहे सारी उम्र,
   फिर भी साबित ना कर पाए अपना ईमान।
     है तू तो सितारा-ए-गर्दिश,
       लगे हैं होने पर सवालिया निशान।।

मिलेगा हर सवाल को जवाब,
   होगा जब तेरी कामयाबियों का बखान।
      हैं हँसी के पात्र जिनके लिए आज,
         कल को वो बताएँगे अपना अभिमान।।

माना गिरे नजरों से, मिली जो हर बार हार,
    तिरस्कार भरी नजरों में भी झलकेगा सम्मान।
      माना गुनेहगार है तेरी सोच आज,
         कल उसी हर बात पर होगा सबको गुमान।।

धिक्कारने वाले तुझे आज,
    कहकर पुकारेंगे कल महान।
      छूने को अपना आसमान ,
         बस एक बार फिर भर तो सही अकेले ही उङान।।

माना ना है कोई संगी-साथी तेरा,
होगी एक दिन तेरी भी एक पहचान।।


दादी और आरती- भाग 1- स्कूल का पहला दिन

"दादी, मुझे स्कूल जाना है, मेरा ना बहुत मन कर रहा है। चलो ना दादी। दादी, तुम कुछ बोलती क्यूँ नही? दादी ..... ! दादी .....! सुनो ना, चलो ना ।"- एक छोटे से गाँव की पाँच साल की आरती ने जिद करते हुए कहा।
                बात 1995 की है, बस एक ही सरकारी स्कूल था उस गाँव में और वो भी सिर्फ आठवीं तक का।
                 "सुन तो रही हूँ ना पोते, मेरा मुम्मी...! स्कूल जाना है...? पर अब तो दस से भी ज्यादा समय हो गया है। कल पक्का चल लेंगे, आज तो बहुत देर हो गई है।"- 80 साला दादी ने कहा, जो 60 की लगती थी शरीर से भी और फुर्ती से भी।
                  "नहीं..नहीं..नहीं..,"- पैर पटकते हुए आऱती ने कहा.. "मुझे तो आज ही जाना है और अभी जाना है। मैं कुछ नहीं जानती, अभी चलो ना दादी। "-आरती दादी को हाथ से पकङकर खींचते हुए कहती है।
                 "अच्छा ठीक है बाबा चलती हूँ, जुत्ती तो पहनने  दे एक बार। अरे मेरी जुत्तियाँ कहाँ चली गई भई...?"- दादी ने हैरान होकर पूछा।
                "अभी लाई दादी, मैंने ही उठाकर अंदर रख दी थी तुमको चिढाने के लिए।"- आरती दौड़कर अंदर जाते हुए बोली।

               "मुझे चिढाने के लिए..?? क्या मतलब..??"-दादी ने और भी हैरानी से पूछा।
               "कुछ नहीं दादी, तुम बस चलो ना जल्दी, पहले ही देर हो चुकी है और देर मत करवाओ।"-आरती ने जुत्तियाँ रखकर रौब छाड़ते हुए कहा।
               "अच्छा..! चल मेरी माँ..! मैं देर करवा रही हूँ..!!"- दादी ने हँसते हुए कहा। "अरे देर तो पहले ही हो चुकी है। तभी तो कह रही हूँ कल चलते हैं।"
                "हूं...हूं... दादी...!!"-आरती ठुनकने लगी, एक कंधे को गर्दन से सटाकर, रुठकर एक कोने में जाकर बैठ गई। होंठो को लटकाकर, तिरछी नजरों से दादी को देखने लगी।
               आरती के रूठने के इस अंदाज पर दादी की हँसी छूट गई।अपने हाथ से अपनी हँसी छुपाती हुई कहने लगी- "ओ...हो.. मेरा चाँद तो रूठ गया, मेरा मुम्मा। चल तो चलते हैं ना।"- दादी ने आरती को गले लगाते हुए कहा।
               कुछ देर बाद आरती दादी की ऊँगली पकङकर उछलती-कुदती हुई स्कूल जा रही थी।
                     थोङी देर बाद आरती दादी की ठीक वैसे ही ऊँगली पकङकर उछलती-कुदती हुई वापिस आ रही थी।
            ऱास्ते में उसकी माँ और परिवार की कुछ दूसरी औरतें कुँए से पानी लाने के लिए जाते हुए मिली।

               "कहाँ से आ रही है सवारी..??"-माँ ने पूछा।

             "माँ हम स्कुल गए थे।"-आरती ने बताया।
       "आज...? पर आज तो इतवार है। पता नहीं था क्या..? हमसे पूछ लेते हम ही बता देते।"- माँ ने हैरानी से पूछा।
            "मुझे तो याद ही नहीं था। पूछने का मौका कहाँ दिया इसने। तुम लोग तो खेत में गए थे, इसने जिद कर दी स्कूल जाने की। जा पोते.., तू जाकर खेल ले, वो देख तेरी सारी सहेलियाँ वहाँ खेल रहीं हैं।-दादी ने आरती से कहा।
            "हाँ दादी वो सब खेल रही हैं, मैं भी जाती हूँ खेलने। माँ मैं खेलने जा रही हूँ।"- आरती भागते -भागते बताकर चली गई।
            "..हा..हा "-दादी ने हँसते हुए बताना शुरु किया- "जब चपड़ासी ने बताया कि आज तो इतवार है और आज तो छुट्टी है, तो ये रोने लगी और कहती- .....दादी..! ये क्या बात हुई..?आज ही तो मैं स्कूल आई थी और आज ही इतवार बना दिया,... फिर किसी दिन बना लेना ना इतवार।..! आज तो मैं जाऊँगी स्कूल के अंदर। मुझे नहीं पता,.... मुझे तो अभी जाना है अंदर।  फिर चपड़ासी ने कहा आज तो कोई भी नहीं आया है, कल से आ जाना। आज तो मास्टर जी भी नहीं आए तो तुझे पढाएगा कौन? ...तो कहने लगी... तो क्या हुआ बुला लो मास्टर जी को और कह दो कि इतवार किसी और दिन बना लेना। फिर मैंने समझाया कि मास्टर जी तो दूसरे गाँव में रहते हैं, वहां से उनको कौन बुलाकर लाएगा। ऐ बेटा...! अब जिस दिन मेरी पोती आए ना, उस दिन आगे से इतवार मत बनाना। नहीं तो मुझसे बुरा कोई भी नहीं होगा, समझे..! इस बात पर श्यामू चपड़ासी बोला ठीक है दादी आगे से जिस दिन आरती आएगी उस दिन इतवार नही बनाएँगे और हँसने लगा। तब कहीं जाकर वापस आने को तैयार हुई है ये। "
            इस बात पर सब जोर से हँसे और फिर अपने-अपने काम पर चल दिए।

खुला दरवाजा





बहुत शोकाकुल माहौल था घर का..! बुढ़े माँ-बाप अपने जवान बेटे और बहु की लाश के पास बैठे बिलख रहे थे। वो तो अपना  सब कुछ ही हार चले थे । दुख इतना बड़ा था कि कोई सुरते-हाल ही नजर नहीं आ रहा था, जिंदा रहने का..!
               दुख में कोई अगर-मगर नहीं होता, पर बुढ़े माँ-बाप के दिल से एक आह बार-बार निकल रही थी -काश हमारा बेटा ऐसा ना करता..!!  मरना ही था तो खुद को ही मार लेता, बहु और मिनी के साथ तो ऐसा ना करता या हम दोनों को भी इन सबके साथ ही मार देता। हम दोनों अब जिंदा रहकर भला करेंगे भी क्या..?? हाय.! ये क्या हो गया ..??  हमसे ऐसा क्या पाप हो गया था जो मौत से भी बदतर सजा मिली..?? भगवान ने हमारे साथ ऐसा क्यूँ किया..??
               चार दिन हो आए थे इस बात को पर मिनी को अब तक होश नहीं आया था। लोग शोक मनाने घऱ आने लगे थे, पर दादा-दादी तो दिन-रात अपनी मिनी के पास अस्पताल में ही रहते थे। डॅाक्टर ने कहा है उसकी हालत अभी भी गंभीर बनी हुई है और अभी कुछ कहा नहीं जा सकता।
              दस दिन बाद आखिरकार मिनी को अस्पताल से छुट्टी मिल ही गई।
              अब दादा-दादी घऱ पर थे अपनी मिनी के साथ। शोक मनाने वाले अब उनके घऱ आने की खबर सुनकर फिर से आने लगे थे।
             सब लोग उन बुढे माँ-बाप को सांत्वना देते, हिम्मत रखने की सलाह देते और अफसोस जताते और कहते-
            "बहुत बुरा हुआ जी..! भगवान ऐसा किसी दुश्मन के साथ भी ना करे..! इकलौता बेटा था, सब बातों की मौज थी। ईश्वर जाने क्या मन में आई, पूरे परिवार को ही खत्म कर डाला..!  होनी को कौन टाल सकता है भला..!  वो तो शुक्र है ऊपरवाले का, पोती की जान तो बच गई। पर ये दुख भी कुछ कम नही है, पोती की जगह अगर पोता होता तो कुछ सालों की दिक्कत होती बस फिर उसके जवान होने पर फिर से रौनकें लग जाती घऱ में। पोती तो लङकी है, पराया धन है, कल को अपने घर चली जाएगी। पोता होता तो बुढापे का सहारा बनता, वंश आगे बढाता। पर क्या किया जा सकता है..? भगवान की मर्जी के आगे कहाँ  किसी की चलती है, जैसे वो रखना चाहे वैसे ही रहना पङता है। अब जो हो गया उसको तो बदला नही जा सकता, सब्र करो समय सब ठीक कर देगा।"

                   इन सबके बीच एक व्यक्ति था जो शांति से सबकुछ सुन रहा था, बुढे माँ-बाप के पास आया और कहने लगा- "जो भी हुआ बहुत बुरा हुआ। जिस दुख से आप गुजर रहें हैं, मैं वो समझ सकता हूँ, क्योंकि मैं भी एक पिता हूँ। बेशक बहुत बुरा वक्त है ये आपकी जिंदगी का, शायद अब तक का सबसे बुरा। पर एक बात तो आप भी जानते हैं, वक्त की तो फितरत ही होती है गुजरने की, सो ये बुरा वक्त भी गुजर जाएगा।"
                  एक गहरी सांस लेकर कहा- "समय सबसे बङा मरहम है, हर जख्म भर देता है। मैं जानता हूँ इन सब बातों से आपका दुख ना कम होगा और ना बँटेगा, पर हम जैसे इंसान सिवाय चंद शब्दों के कहने के और कर भी क्या सकते हैं। पर एक बात कहना चाहता हूँ, जानता हूँ ये वक्त मुनासिब नहीं है ऐसी बातें करने का। पर फिर भी जरुरी है।"
                 बुढे और दुखी पिता के हाथ पर हाथ रखते हुए उस व्यक्ति ने कहा- "आपके बेटे और बहु को वापिस नहीं लाया जा सकता, पर अभी भी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। उनका तो जीवन का सफर इतना ही लिखा था, पर कम से कम इस बात से दुखी मत रहना की मिनी पोती है।................. बेटियाँ हर फर्ज बखुबी निभाती हैं, ..बेटों की ही तरह,..बशर्ते उन्हें निभाने दिया जाए। हमने बेटी,..बहन,.. पत्नी ..और माँ के दायरे के नाम पर इतनी बंदिशों का जाल बुन दिया है उनके चारों तरफ कि एक दिन उस जाल से उलझते-उलझते उसी जाल में उनका दम घुट जाता है। हम हमेशा उन्हे उन जिम्मेदारियों को निभाने के नाकाबिल मानते हैं, जो उन्हे कभी निभाने ही नहीं देते।"
                 एक लंबी सांस लेते हुए कहना जारी रखा- "जहाँ तक वंश आगे चलाने की बात है, कुदरत ने तो आदमी और औरत दोनों की सहभागीता निर्धारित की हुई है। पर अगर नाम किसी एक का ही चलता है, ये नियम तो हमारा ही बनाया हुआ है ना। सदियों से चलती इस मान्यता ने इतनी गहरी पैठ बना ली है कि अब यही वास्तविकता बन गई है..! पर सच क्या है उसकी वास्तविकता हम कभी समझना ही नही चाहते।"

                 बुढे पिता के हाथों को अपने हाथ में लेकर बहुत ही सहज शब्दों में कहा- "जानता हूँ ये मौका नही है  ऐसी बातों का, पर ऐसे समय पर ही तो हम इंसान जिंदगी को सच में समझने औऱ उसे जानने की कोशिश करते हैं।..... उम्मीद करता हूँ बुरी तो नही लगी होंगी मेरी बातें..!! ईश्वर आपको इस सदमें से उबरने की हिम्मत दें..! अपना और मिनी बिटिया का ख्याल रखना आप दोनों। अच्छा ! अब ईजाजत दीजिए।"
                "कौन था ये आदमी..?  कैसी अजीब बातें कर रहा था..?  ना वक्त देखा, ना मौका और लगे भाषण देने। अरे कम से कम ये तो देख लेता किनसे बात कर रहा है..! इनका यहाँ पूरा परिवार उजङ गया और उनको बेटियों का बखान सूझ रहा है। बताओ तो था कौन ये आदमी..??"- एक रिश्तेदार ने शिकायती लहजे में पूछा।
                "ये हमारे पङोसी हैं मामीजी, बस दो घर छोङकर घर है इनका। अब तो वैसे बाहर रहते हैं, आते रहते हैं गाँव में ।.... जब भी आते हैं मिलकर जरुर जाते हैं। बहुत ही भले आदमी हैं।..... तीन बेटियाँ हैं इनकी। तीनों ही बङे ओहदों पर नौकरी करती हैं। और दामाद तो सुनने में आया है, बेटों से भी बढकर सेवा करते हैं इनकी। जो भी कहा है इन्होने, इनके जीवन पर नजर डाली जाए तो सही ही लगता है।"- बुढे माँ-बाप की बङी बेटी ने बताया।
                "वो सब तो ठीक है, पर ये समय तो ठीक नही है ना इन सब बातों के लिए।"- मामीजी ने इस बार जरा नरम लहजे में कहा।
                     इसी बीच बुढे माँ-बाप एक-दूसरे की तरफ देखकर, एक-दूसरे के दिल की आवाज का अंदाजा लगाने की कोशिश करते हैं कि क्या भगवान ने सच में सौ दरवाजे तो बंद कर दिए, पर एक दरवाजा खोल भी दिया है।






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