मैं कौन हूँ? मैं क्यूँ हूँ? मैं क्या हूँ?
पूछा जब भी दिल ने तो लगा मैं बेवजह हूँ।।
मैं जीवन हूँ या हूँ बस गुजरता हुआ पल?
मेरा अस्तित्व ही दुश्मन बनकर कर रहा बेकल।
मैं निराशा हूँ या कि तकदीर की दरिंदगी ?
मैं तो नाउम्मीदी हूँ और चाहतों के नाम पर शर्मिंदगी।।
लगता है मर गई हूँ, चाहे बेशक सदेह हूँ।
पूछा जब भी दिल ने तो लगा मैं बेवजह हूँ।।
क्यूँ जलाती हैं चलती सांसे और क्यूँ हूं मैं ज़िंदा?
खुद का ही बोझ ढोते-ढोते हो गई हूँ मैं शर्मिंदा।।
मैं एक सूनी डगर, रेगिस्तानी राहे-गुजर।
मृगतृष्णा से भटकती दर-दर,खुद से हो चुकी बेदर।।
मंजिल नहीं जिसकी, मैं तो वो राह हूँ।
पूछा जब भी दिल ने तो लगा मैं बेवजह हूँ।।
हर मुस्कराहट का कर्ज चुकाती हुई मैं।
हर तड़प पर, सहारे की कीलें ठोकती मैं।।
मैं तो बेजान होती जा रही हूँ।
खुली आँखों से सोती जा रही हूँ।।
होश में हूँ, फिर भी नामालूम कहाँ हूँ?
पूछा जब भी दिल ने तो लगा मैं बेवजह हूँ।।
ध्वस्त हो चुके ख्वाबों की संगिनी हूँ मैं।
तकदीर के निर्दयी तमाशों की बंदिनी हूँ मैं।।
मैं खुद को ढूँढती हूँ महफिलों की तन्हाईयों में।
घुट-घुट कर मरती वक्त की रुसवाईयों में।।
दुखों में डूब चुकी जो, मैं वो सतह हूँ।
पूछा जब भी दिल ने तो लगा मैं बेवजह हूँ।।
उजड़ी बहारों में काँटों को तलाशती मैं।
आज में उलझे कल को खंगालती मैं।।
तूफ़ानों से होती बेसबर, खोती जा रही अपनी ही कदर।
सांसो से मुक्ति बेहतर, क्योंकि खुद से हो चुकी बेदर।।
आस नहीं छूटती फिर भी मैं कैसी बेहया हूँ।
पूछा जब भी दिल ने तो लगा मैं बेवजह हूँ।।
पूछा जब भी दिल ने तो लगा मैं बेवजह हूँ।।
मैं जीवन हूँ या हूँ बस गुजरता हुआ पल?
मेरा अस्तित्व ही दुश्मन बनकर कर रहा बेकल।
मैं निराशा हूँ या कि तकदीर की दरिंदगी ?
मैं तो नाउम्मीदी हूँ और चाहतों के नाम पर शर्मिंदगी।।
लगता है मर गई हूँ, चाहे बेशक सदेह हूँ।
पूछा जब भी दिल ने तो लगा मैं बेवजह हूँ।।
क्यूँ जलाती हैं चलती सांसे और क्यूँ हूं मैं ज़िंदा?
खुद का ही बोझ ढोते-ढोते हो गई हूँ मैं शर्मिंदा।।
मैं एक सूनी डगर, रेगिस्तानी राहे-गुजर।
मृगतृष्णा से भटकती दर-दर,खुद से हो चुकी बेदर।।
मंजिल नहीं जिसकी, मैं तो वो राह हूँ।
पूछा जब भी दिल ने तो लगा मैं बेवजह हूँ।।
हर मुस्कराहट का कर्ज चुकाती हुई मैं।
हर तड़प पर, सहारे की कीलें ठोकती मैं।।
मैं तो बेजान होती जा रही हूँ।
खुली आँखों से सोती जा रही हूँ।।
होश में हूँ, फिर भी नामालूम कहाँ हूँ?
पूछा जब भी दिल ने तो लगा मैं बेवजह हूँ।।
ध्वस्त हो चुके ख्वाबों की संगिनी हूँ मैं।
तकदीर के निर्दयी तमाशों की बंदिनी हूँ मैं।।
मैं खुद को ढूँढती हूँ महफिलों की तन्हाईयों में।
घुट-घुट कर मरती वक्त की रुसवाईयों में।।
दुखों में डूब चुकी जो, मैं वो सतह हूँ।
पूछा जब भी दिल ने तो लगा मैं बेवजह हूँ।।
उजड़ी बहारों में काँटों को तलाशती मैं।
आज में उलझे कल को खंगालती मैं।।
तूफ़ानों से होती बेसबर, खोती जा रही अपनी ही कदर।
सांसो से मुक्ति बेहतर, क्योंकि खुद से हो चुकी बेदर।।
आस नहीं छूटती फिर भी मैं कैसी बेहया हूँ।
पूछा जब भी दिल ने तो लगा मैं बेवजह हूँ।।