दौङ

वो दौङा बेतहाशा था,
जाने किस बात पर रुआँसा था।
आजमाए थे हर मालूम जोर उसने,
पर हार का ही होता खुलासा था।।

सुना था कहते हुए ये उसने,
जीवन उत्सवों का नाम है।
नाकामयाबी दिखाती है कामयाबी की डगर,
उसकी कोशिशों में फिर क्यूँ नजर आती थकान है।।
अश्क बहाए हर दफा उसने इतने।
फिर भी नजर आता सब धुँधला सा था,
वो दौङा बेतहाशा था,
जाने किस बात पर रुआँसा था।

सुनी थी उसने कितनी ही कहानियाँ,
गिर-गिर कर दौङने के कारनामों की।
कुदरत भी देती साथ, जो करता है अनथक प्रयास,
सफलता चूमती कदम, जरुरत नहीं बहानों की।।
वो क्यूँ लङखङा उठता, जब गिर कर उठाता कदम,
क्यूँ फिर उसकी मंजिलों पर छाया कुहाँसा था।
वो दौङा बेतहाशा था,
जाने किस बात पर रुआँसा था।

जब हर बार सपना हुआ चूर-चूर,
तो सोचा चल कुछ देर अब ठहर जाते हैं।
हर प्रयत्न हो गया है अनमना सा,
क्यूँ ना धरा के संग ही बह जाते हैं।।
पर मौत आने से पहले ही क्या मरना,
कोशिशें करते रहने का नाम ही तो आशा था।
वो फिर दौङा बेतहाशा था,
चाहे कितना भी रुआँसा था।।

बरसात का त्यौहार

ये बादलों के नीले पहाङ,
जो आसमान के हैं उस पार।
पुकारते हैं हमें कि देखो,
प्रकृति ने किया फिर से हार-श्रृंगार।।

छाई पेङों पर नई हरियाली,
जब आया बरसात का त्यौहार।
झमाझम बरसते हैं मेघ ऐसे,
 कि छा गई है हर ओर बहार।।

हर जीव को मिला नवजीवन,
गाए धरा का कण-कण राग मल्हार।
धुल गई अशुद्धियाँ सारी,
हुई धरती माँ नवयौवन से सरोबार।।

कभी मक्खन समेटे अपने में ये गगन,
तो कभी लाता काली घटाओं के वार।
निचुङती गरमी से दिलाने निजात,
देखो आया सावन का कहार।।

भांत-भांत की सजीवटता झलकती,
नजर आता जीवन का असीमित सार।
मुरझाए फूल भी खिल उठे तब,
जब आसमान से हुई बूँदों की बौछार।।

मीठे-तीखे पकवान भाते,
हवाओं में बहता एक नशीला खुमार।
नीरस, बेरंग से होते क्षणों में ,
अचानक सज जाते रंग बेशुमार।।

टप-टप कर टपकते तन के पानी का,
बारिशें उतारने आई तन का चिपचिपा भार।
खिल उठा हर रुप धरा का,
देखो जब आया बरसात का त्यौहार।।















































आरती और दादी भाग 3- मुलाकात

             
  दो दिन बाद शीना अपनी दादी को लेकर आरती के घर आई। तीन गली के बाद अगली गली में मुड़ते ही, दो घर के बाद, तीसरे घर के सामने पहुँच कर, पीछे मुड़कर पूछने लगी-"दादी यही घर है ना... ?"
              अभी उसकी बात पूरी हुई भी नहीं थी कि उसी समय घर से बाहर भाग कर आती हुई आरती उससे टकरा गई, तो गुस्से से बोली-"देखकर नहीं चल सकती अं.......... !"                पर शीना की दादी को देखते ही अपनी ही बात बीच में ही काटते हुए और अपनी जीभ दांतों तले दबाकर बोली "राम-राम दादी। "
             जीभ निकालकर और आँखें टेढ़ी करके शीना को "ऐंं......" चिढाते हुए बाहर भाग गई। शीना की दादी हँस पड़ी।
            "कौन है आरती... ?? अरे बहन तू...! बड़ा इंतज़ार कराया तुमने तो....! पोती बताना भूल गई थी क्या...? नमस्ते शीना पोती  "-आरती की दादी ने शीना की दादी को चारपाई पर बैठाते हुए और शीना का अभिवादन स्वीकार करते हुए कहा।
           "शीना ने तो उसी दिन घर आते ही बता दिया था। क्या बताऊँ बहन बेटा और बहु तो सारा दिन खेत सँभालते हैं, तो घर पर भी तो कोई तो रहे। आज वो घर पर थे तो मैं आ गई। और बता कैसी है तू ..?"-शीना की दादी ने कहा।
           "मैं तो ठीक हूँ तू ये बता घर पर सब कैसे हैं? शीना पोती तू कैसी है? आरती से फिर झगड़ा तो नहीं हुआ ना तेरा..? हा... हा......!" -आरती की दादी ने हँसते हुए पूछा।
           " ..न... नही दादी। "-शीना ने झेंपते हुए जवाब दिया।  इस सवाल के लिए तैयार नहीं थी वो।
           "ऊपरवाले की दया से सब ठीक हैं । अरे बहन बच्चे तो ऐसे ही रहते हैं, अभी लड़ेंगे और अगले ही पल फिर वैसे के वैसे।"-शीना की दादी ने हाथ और कंधा एक तरफ मटकाते हुए कहा।
          "बिल्कुल सही कहा बहन तुमने। बच्चे तो सिर्फ प्यार दिल से करते हैं, बाकी लड़ना-झगड़ना तो ऊपर-ऊपर से ही होता है। तभी तो सब द्वेष-भाव तुरंत ही हवा हो जाता है उनका ।......... पर हम बड़े द्वेष भाव दिल से करते हैं और प्यार ऊपर-ऊपर से तभी हमारा प्यार और भाई-चारा जरा सी खट-पट में तुरंत हवा हो जाता है। हमारी बुद्धि, समझ और शरीर तो समय के साथ बडे़ होते जाते हैं, पर हमारी औकात वैसे ही इतनी छोटी होती जाती है कि जरा सा किसी ने कुछ कहा नहीं कि हर बात हमारी औकात को लग जाती है और हम नाराज होकर बैठ जाते हैं।"-आरती की दादी ने जरा गंभीर होते हुए कहा।
              "अरी बहन औकात को छोडो़, आजकल के लोगों की अकड़ घरों की दीवारों से ज्यादा ऊँची हो गई है और खुद के सामने उनको कोई दिखाई ही नहीं देता।.......हमारा जमाना कुछ और था, लोगों का एक -दूसरे के बिना काम नहीं चलता था। इसलिए लोगों की कदर हुआ करती थी। ...... अब मशीनी दुनिया में एक-दूसरे का सहारा कम हो गया है और कदर भी।"-शीना की दादी ने भी उतनी ही गंभीरता से उत्तर दिया।
             शीना एक बार अपनी दादी को देखती तो एक बार आरती की दादी को, समझ तो उसको कुछ आ नहीं रहा था।  शब्दों को बोलते समय होंठों का आकार कैसा होता है, चेहरा कैसे हिलता है, आँखें कैसे छोटी-बडी़ होती हैं, हाथ कैसे हवा में हिलते हैं, ये सब देखने में वो एकदम तल्लीन हो गई थी।
            तभी अचानक आरती की दादी हँसते हुए बोली - "क्या देख रही हो शीना पोते...! दोनों दादियों के पोपले मुँह......!!"
            इस बात पर दोनों सहेलियाँ जोर-जोर से ठहाके लगाने लगी।
           "जी....?!!"शीना थोड़ी हड़बड़ा कर बोली।

            इतने में आरती की मम्मी चाय ले आई और शीना की दादी के पैर दबाते हुए बोली -"राम-राम चाची कैसी हो..? आज कैसे रस्ता भूल गई हमारी गली का। ये पोती है क्या आपकी..?....ले बेटा दूध पी ले। "दूध का गिलास शीना को देते हुए आरती की मम्मी बोली।
            "राम-राम बहू। हाँ ये मेरी लाडली पोती है। "-शीना की दादी ने चाय पीते हुए जवाब दिया।
             दूध पीकर शीना बोली -"आरती कहाँ गई चाची..? "
"अरे वो तो अपने ताऊजी के यहाँ आँगन में खेल रही होगी। इस पहर किसी में इतना दम नहीं के उसको घर पर रोक ले और खेलने से हटा सके। तुझे खेलने जाना है क्या उसके पास..? "- आरती की मम्मी ने पूछा।
             "हाँ चाची।"-शीना ने उत्तर दिया।
             "ठीक है तो ऐसा करना, यहाँ से गली में सीधे हाथ की तरफ जब तू जाएगी ना तो जो तीसरा घर है, उसके पीछे बहुत बड़ा मैदान है। वहाँ वो गली के बच्चों के साथ खेल रही होगी। वहाँ पहुँच कर तेरी ताईजी से पूछ लेना। ठीक है बेटा।"-आरती की मम्मी ने शीना को पुचकारते हुए बताया।
           "जा बेटा तू आरती के साथ खेल ले। मुझे तो अभी समय लगेगा।"-शीना की दादी ने कहा।
          "ठीक है दादी मैं खेलने जा रही हूँ।" -शीना ने घर से बाहर जाते हुए कहा।
         'आरती की दादी और मम्मी कितनी अच्छी है और आरती कितनी अकड़ू, नकचढी और लड़ाकू ह...!- पता नहीं वो मुझे खिलाएगी भी या नहीं।' शीना सोचते हुए गली से जा रही थी।


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